शहर अंजान हो गया
कोरोना के कहर में , अपना ही शहर अंजान हो गया
सुनसान हुए चौक – चौराहे
बाजार वीरान हो गया ,
तिनके – तिनके से जहां थी दोस्ती ,
पहचान ही गुमनाम हो गया ,
लापता हो गई यारी – दोस्ती ,
मुल्तवी हर काम हो गया ,
एक अंजाने – अनचिन्हे डर के आगे ,
बेबस – बेचारा विज्ञान हो गया
— तारकेश कुमार ओझा