कविता

मजबूरी के हौसले

इरादे जिनके नेक
उनको मंजिल से भेंट
सियासत की,स्वभाव में वो धार कहाँ ?
जो अड़िग होसलों को रोक पाते।

जेब. खाली, पेट खाली
पांव पैदल चलते लाचारी
आते जाते लोगो की,
घर पहुँचने की हौसला भारी।

सियासत की ओछी गलियाँ
संकीर्णता से. भरी पड़ी
जिनकी नैतिकता बिक गयी
उनके केवल बातें बड़ीबड़ी।

तुझमें अब वो धार नहीं
हारने की करो तैयारी
देख रहा हूँ तेरा अस्त
तेरे फैसले में भरा अश्क।

— आशुतोष

आशुतोष झा

पटना बिहार M- 9852842667 (wtsap)