कहानी

शक्ति की विजय

वैभवी मेरे बचपन की सहेली। दोनों ने साथ ही पढाई पूरी की और एक ही दफ्तर में नौकरी भी मिल गई। दोनों में इतनी गहरी दोस्ती हो गई थी कि एक दूसरे के लिए सगी बहनों से भी बढ़कर थी। वैभवी की शादी के बाद उसे नौकरी छोड़नी पड़ी और हमारा साथ भी छूट गया। कभी कभार फाॅन पर ही बात होती थी। वैभवी हमेशा मिलने बुलाती, लेकिन घर और दफ्तर के काम से कभी फुर्सत ही नहीं मिलती। छुट्टी वाले दिन तो सामान्य दिन से भी अधिक काम होता, ऐसे में समय निकाल पाना मुश्किल ही था।
एक दिन जब सामान लेने बाजार गई तो रास्ते में वैभवी की माँ मिली। उनसे बात हुई तो पता चला कि दो दिन पहले वैभवी का बच्चा जन्म लेने से पहले ही मर गया। इस असहनीय दुःख के कारण वह पूरी तरह टूट गई। मैं सारे काम.काज छोड,़ तुरन्त वैभवी से मिलने उसके ससुराल चली गई। पिछले पाँच सालों में अब तक एक बार भी उससे नहीं मिल पाई थी।
वैभवी की सास मुझे उसके कमरे में लेकर गई। कमरे में दो औरतंे और सात.आठ साल का एक बच्चा भी बैठा था। वे दोनों भी वैभवी का दुःख बाँटने आई थी। वैभवी पलंग पर स्थिर मुद्रा में ऐसे बैठी थी, जैसे उसे किसी के आने का कोई एहसास ही ना हो।
मैं वैभवी के पास जाकर बैठी और उसका ध्यान बँटाने के लिए नाराजगी भरे अंदाज में बोली. वैभवी! ये क्या हाल बना रखा है ? कबसे तेरे पास बैठी हूँ, तुझे खबर ही नहीं है। लगता है तू तो मुझे भूल ही गई। ये सुनकर दोनों औरतें मुझे घूरने लगी। यकायक मुझे आत्मग्लानि का अनुभव हुआ, कहीं कुछ गलत तो नहीं बोल दिया। तभी एक औरत बोली. एक माँ का दु़ःख माँ ही समझ सकती है। इसे खुद का होश नहीं रहा, भला तुझे कैसे पहचानेगी ? कितनी असहनीय पीड़ा सहकर बच्चे को जन्म दिया था। पूरे नौ महीनें जिसे अपनी कोख में पाला, उसकी हर हलचल को महसूस किया, क्या.क्या अरमान संजोए थे। इतने इंतजार के बाद भगवान ने उससे संतान का सुख छीन लिया। एक औरत के लिए इससे बड़ा दुःख और क्या हो सकता है ? वैभवी की बेबस नजरें मेरी ओर उठी। उसकी आँखों के आँसू पूरी तरह सूख चुके थे। वैभवी मुझे इस तरह देख रही थी, जैसे उसे सहानुभूति की नहीं, मेरी सहायता की जरूरत हो। उसके मन में एक अलग ही युद्ध चल रहा था। मेरे ढाढ़स बंधाने पर भी वो मुझे एकटक देखे जा रही थी, जैसे मुझसे बहुत कुछ कहना चाहती थी, लेकिन कुछ कह नहीं पा रही थी। दोनों औरतें और उसकी सास वहीं बैठी थी, इस कारण उसके मन की बात होठों पर ही अटकी हुई थी। उसके मन की उथल.पुथल उसकी आँखों से स्पष्ट झलक रही थी। मैं समझ नहीं पाई, आखिर उसके मन में क्या चल रहा था।
औरतें वैभवी को समझाने लगी. बेटा जो होना था सो तो हो गया, तू हिम्मत रख, इस तरह टूटने से कुछ बदल तो नहीं जाएगा। वैभवी चुपचाप सब सुनती रही, किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कुछ समय बाद औरतें आपस में अपनी ही बातें करने लग गई। मैं और वैभवी चुपचाप उनकी बातें सुनने लगी।
एक औरत बोली. तुम्हारे भाग्य अच्छे है, जो समय पर लड़के की शादी हो गई और पोता भी हो गया। मेरे बेटे के लिए तो कोई लड़की ही नहीं मिल रही है।
लेकिन तुम्हारे बेटे के तो नौकरी भी लग गई, फिर क्यों नहीं मिल रही ? औरत ने पूछा।
क्या करू ? लड़कियों की इतनी कमी हो गई है कि अभी तक कहीं रिश्ता नहीं हुआ। एक.दो जगह बात भी चली, लेकिन वो लोग भी बहुत आना.कानी कर रहें हैं। कह रहे है कि पहले हमारे लड़के की सगाई करवाओ तो ही लड़की का रिश्ता तय करेंगे। अब मेरी नजर में तो कोई लड़की है नहीं, राम जाने घर मैं बहु आएगी भी या नहीं। औरत बड़ी निराश होकर बोली।
हां आजकल बच्चियां इतनी आसानी से मिलती ही कहां है ?
ष्झाड़ियों मेंष्
अचानक उस औरत के साथ आया बच्चा बोला। सभी चैंककर बच्चे को देखने लगे। बच्चा अपनी दादी की ओर देखकर बोला. हां दादी, बच्चियां झाड़ियों में ही तो मिलती हैं। कल सुबह दादाजी अखबार में पढ़ रहें थे कि रेलवे स्टेशन के पास झाड़ियों में फिर मिली एक नवजात बच्ची। आपको वहीं पर मिलेगी बच्चियां। इतना कहकर लड़का बाहर खेलने चला गया।
सभी तुरन्त समझ गए कि बच्चे ने ऐसा क्यों कहा। जिस बात की गहनता को समझे बिना, उस बच्चे ने इतनी सहजता से बोल दिया था, वो हमारे समाज का कटु सत्य था। ष्लड़के की चाहत ने लोगों के दिल और दिमाग पर इतने भारी.भरकम पत्थर रख दिये है, जिन्हें हटाना बहुत ही दुष्कर हो गया है।ष्
सभी औरतें इसी विषय पर चर्चा करने लग गई। एक औरत बोली. हां मैंने भी सुना था, सुनते ही मन पसीज गया। ये तो गनीमत है कि समय रहते किसी भले आदमी को पता चल गया, नहीं तो पता नहीं क्या होता उसका ? फिलहाल तो हाॅस्पिटल में ही है। पुलिस बच्ची के माता.पिता की तलाश कर रही है।
दूसरी औरत बोली. कितनी निष्ठुर माँ होगी, जिसने अपनी फूल सी कोमल बच्ची को झाड़ियों में बेसहारा छोड़ दिया। उसे थोड़ी भी दया नहीं आई। वैभवी की सास भी उन औरतों की हां में हां मिला रही थी।
वह औरत फिर बोली. अरे ! धिक्कार है ऐसी माँ को। माँ नाम पर ही कलंक है ऐसी औरतें। एक तो हमारी बहु है, जो अपने बच्चे की मौत के गम में होश गंवाए बैठी है और दूसरी ये निर्दयी माँ, जिसने अपनी मासूम सी बच्ची को लावारिस छोड़ दिया।
पहली औरत बोली. ष्दूनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई, लेकिन इन लोगों की सोच अभी तक नहीं बदली। बेटी होना तो सौभाग्य की बात है। लोग बेटियों की ये दुर्दशा करके अपने ही दुर्भाग्य को न्यौता दे रहे है।ष्
दूसरी औरत फिर बोली. जरूर किसी का पाप होगा, तभी झाड़ियों में फेंक दिया।
नहीं, इन सब में भला उस मासूम का क्या दोष है, उसके बारे में ऐसा मत बोलो। पहली औरत ने उसकी बात का जवाब दिया। मैं भी उसके जवाब से सहमत थी।
वो औरत फिर बोली. अरे ! ऐसी माँ से तो जानवर भी अच्छे है, जो हर संकट से लड़कर अपने बच्चे की रक्षा करते है।
असल में दुर्भाग्य उस माँ का नहीं है, दुर्भाग्य तो उस बच्ची का है, जिसे इतनी निर्दयी माँ मिली। भगवान ऐसे लोगों को कभी औलाद ही ना दे।
उस औरत के शब्द वैभवी के हृदय में शूल के समान चुभ रहे थे। उसके व्यंग्य वह सहन नहीं कर पाई। वैभवी झल्लाकर बोली. बस करो।
इससे पहले कि वह आगे कुछ बोलती, उसकी सास बात बदलते हुए बोली. अरे ! बातों.बातों में पता ही नहीं चला, शाम हो गई। बाजार से सब्जियां और सामान भी लाना है, चलो साथ ही चलते हैं।
वैभवी की सास ने मुझे उसके आने तक वहीं रूकने को बोला और उन औरतों के साथ चली गई। मेरे दिल को थोड़ी राहत मिली। कबसे चुपचाप बैठी थी, वैभवी से खुलकर बात करने का मौका मिल गया।
मैंने वैभवी के कंधे पर हाथ रखकर पूछा. क्या बात है वैभवी ?
कुछ नहीं, जो है तुझे भी पता है। वैभवी रोनी सी सूरत बनाते हुए बोली।
झूठ मत बोल, मैं बचपन से तुझे जानती हँू। तू कुछ तो छुपा रही है, सच.सच बता। हमने एक.दूसरे से कभी कोई बात नहीं छुपाई, लेकिन शादी होते ही तू इतनी बदल गई, कबसे अकेली ही परेशान हो रही है। अब तुझे मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं रहा, कि अपने मन की बात बता सके।
मेरी बात सुनकर वैभवी मुझसे लिपटकर रोने लगी। ऐसा लग रहा था, जिन आँसुओं की नदी को उसने अब तक रोक रखा था, वह अचानक फूट पड़ी हो। मैंनेे उसे चुप किया और पानी पिलाया।
बहुत हुआ रोना, अब बता भी दे, क्या हुआ है ? मेरा दिल घबरा रहा है।
रोने के कारण वैभवी का गला रून्ध गया था, इसलिए वह कुछ देर चुप ही रही, फिर बोली. मुझे मेरी बच्ची से मिला दे।
उसकी बात सुनकर मैं चैंककर बोली.
बच्ची! तू होश में तो है, अभी दो दिन पहले ही तो तेरा बच्चा मरा है, उससे कैसे मिलाऊं ?
हां मैं होश में ही हूँ। मेरी बच्ची मरी नहीं है, जिंदा है। मैं तेरा अहसान कभी नहीं भूलूंगी मुझे मेरी बच्ची से मिला दे। वैभवी हाथ जोड़कर बोली।
ये क्या कह रही है तू ? कहाँ है तेरी बच्ची ?
ष्हाॅस्पिटल में।ष्
हाॅस्पिटल ! वहाँ क्यों है ? कुछ हुआ है क्या ? मैंने आश्चर्यपूर्वक पूछा।
नहीं, उसे कुछ नहीं हुआ, वो बिल्कुल ठीक है। अभी जिस बच्ची की सब बात कर रहे थे, वो मेरी बच्ची हैै, किसी का पाप नहीं है।
वैभवी की बात सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मैं खुद को सम्भालते हुए बोली. अगर तेरी बच्ची है तो उसे झाड़ियों में क्यों छोड़ आई ?
वैभवी ने झिझकते हुए जवाब दिया. मैंने नहीं, मेरी सास ने छोड़ा। उन्हें पोती नहीं, पोता चाहिए। इससे पहले भी दो बार मेरे बच्चे का लिंग जाँच करवा कर, गर्भपात करवा दिया। कानून की सख्ती के कारण अब कोई भी डाॅक्टर आसानी से इस काम के लिए राजी नहीं होता है। इसलिए जन्म लेने के बाद मेरी बच्ची को मुझसे दूर कर दिया और सबको बोल दिया कि मैंने मरे हुए बच्चे को जन्म दिया।
वैभवी की बातों ने मुझे हैरान कर दिया। मैं सोच भी नहीं सकती कि अब तक जो औरत सबकी हां में हां मिला रहीं थी, उसका ये रूप भी होगा।
मैंने वैभवी से पूछा. तेरे पति ने कुछ नहीं कहा ?
नहीं, वो तो अपनी माँ की हर बात मानते है। मैं विरोध करती हूँ तो मुझ पर हाथ उठाते है।
तो छोड़ क्यों नहीं देती ऐसे पति को, तू पढ़ी.लिखी है, सक्षम भी है फिर क्यों सहन कर रही है इतने अत्याचार ? पाँच सालों में एकबार भी मुझे बताना जरूरी नहीं समझा ? मुझे ना सही, अपने घर तो खबर करती, कोई तो तेरी मदद करता। मैंने वैभवी को डाँटते हुए कहा ।
वैभवी बोली. शादी के बाद इन लोगों ने मेरे साथ जो किया, सब मैंने माँ को बताया था, लेकिन पापा को दिल का दौरा आने के बाद माँ को उनकी बहुत चिन्ता लगी रहती है, इसलिए ये सारी बातें उनसे छुपा के रखी।
माँ ने मुझे समझाया कि. “ष्हर औरत को सहन करना ही पड़ता है। एक ना एक दिन वे लोग भी समझ जाएंगे और सब ठीक हो जाएगा। अब तुझे उसी घर में रहना है, झगड़ा करने से कोई मतलब नहीं है। कल को घर से निकाल दिया तो हमारी बदनामी होगी।”
फिर मैंने माँ से भी इन सब बातों का जिक्र करना बंद कर दिया। मैं उस समय मझबूर थी, कुछ नहीं कर पाई, लेकिन अब बात मेरी नहीं, मेरी बच्ची की है। मैं उससे मुँह नहीं मोड़ सकती हूँ।
इस घर मैं रहने के लिए मैंने क्या नहीं किया, अपनी नौकरी तक छोड़ दी। चुपचाप सब कुछ सहती रही, फिर भी किसी को मेरी खुशी की रत्तिभर भी परवाह नहीं है। तू बस मुझे मेरी बेटी से मिला दे, जो होगा देखा जाएगा।
उन औरतों की व्यंग्य भरी बातों ने शायद वैभवी की दबी, सहमी ममता में प्राण फूंक दिये थे।
लोगों के दोगले स्वरूप को देखकर मैं सोचने लगी. ष्एक ओर तो हमारे समाज में शक्ति, शक्ति कहकर नारी को पूजा जाता है और दूसरी ओर उसे सहनशक्ति की मूरत बनाकर घरों में विराजमान कर दिया जाता है। संस्कारों के नाम पर सहनशक्ति के बीज बौने वाली तुच्छ मानसिकता के कारण ही औरतों को अत्याचार सहने पड़ते हैं। बेटे और बेटी में भेद करने वाली घृणित मानसिकता को धिक्कार है।ष्
वैभवी ने मेरा हाथ पकड़कर पूछा. क्या तुम मेरी मदद करोगी ?
मैंने कहा ठीक है, लेकिन तुम्हें बिना डरे अपने अधिकार के लिए लड़ना होगा, क्या तुम तैयार हो ?
हां मैं तैयार हूँ। अब तक जो सबकुछ चुपचाप सहती रही वो एक बेटी, एक पत्नी और एक बहु थी। लेकिन अब वो एक माँ है, जो अपनी बेटी के लिए कुछ भी कर सकती है। वैभवी की बातों से उसका जुनून स्पष्ट प्रतीत हो रहा था।
हम दोनों तुरन्त हाॅस्पिटल के लिए निकल गए। वहाँ जैसे ही हम उस बच्ची के वार्ड में पहुँचे, वैभवी दौड़ते हुए सीधे अपनी बच्ची के पास गई और उसे गोद में लेकर रोने लगी। मैंने पास खड़ी पुलिस को पूरी बात बताई। पुलिस ने थाने ले जाकर रिपाॅर्ट दर्ज की और वैभवी को उसकी बेटी मिल गई। शक्ति और सहनशक्ति की लड़ाई में एक माँ की शक्ति की विजय हुई।

नीतू शर्मा 'मधुजा'

नाम-नीतू शर्मा पिता-श्यामसुन्दर शर्मा जन्म दिनांक- 02-07-1992 शिक्षा-एम ए संस्कृत, बी एड. स्थान-जैतारण (पाली) राजस्थान संपर्क- [email protected]