कविता

लक्ष्मण रेखा

सांझ ढल गई बिस्तर छोड़ बैठ गया घर की बालकनी में
फुर्सत के है यह क्षण
सोचा कैसे इनको बिताऊं
घर से बाहर निकल सकता नहीं
खिच गई है एक लक्ष्मण रेखा
एक रेखा लक्ष्मण ने खींची थी
माता सीता के लिए
यह कहकर
न निकले इस रेखा से बाहर
आपकी रक्षा करेगी
बची रहेगी संकटों से
माता रोक न पाई अपने आप को
तोड़ दी लक्ष्मण रेखा
और हरण उनका रावण कर ले गया
वन वन भटकना पड़ा
दोनों भाइयों को
आज वही फिर स्थिति है बन गई
करोना रूपी रावण ने दस्तक दे दी है दरवाजे पर
बचने को उससे है जरूरी
पार न की जाए दहलीज दरवाजे की
नहीं तो हरण कर ले जाएगा
आज जो धर के आया है करोना का रूप
देख रहा हूं
सामने बिल्डिंग में लगा केसरिया ध्वज लहरा रहा है
शायद कह रहा है
संकट की भला हो यह घड़ी
इस घड़ी में भी मुस्कुराना न छोड़ना
हम उस जमी के है जिसने झेला है कितने संकटों को
यह संकट कौन सा भारी है
फतह इसको भी कर लेंगे हम
धैर्य न छोड़े
तूफान के गुजर जाने तक एक जगह थम जाए
और बस करें इंतजार
जिंदगी पहले सी फिर मुस्कुराएंगी

— ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020