तेरे मेरे बीच जो,
ह्रास की रेखा खींच गई,
साथ ही साथ वर्जनाओं की,
परिधी भी दिख गई।
उसके बाहर पग,
धरना वर्जित था,
उस ओस से रिश्ते का,
परिधी के परे,
जीवित रहना भी,
नामुमकिन था।
भाव-चित्त-प्रेम ने स्थिर हो,
नैनों की भाषा,
नैनों ने समझी थी।
शब्दों की अल्पता,
उस सम्पूर्णता को,
कब खलती थी।
हृदय की रिक्तता,
को चीरते हुए,
कल कल करते पलों में,
न जाने तुम,
क्या- क्या कह गये थे।
यूँ तुम बिन खुद को,
पाना कब मुमकिन था।
वो आत्मविश्वास,
लम्हा विश्वास भरा,
मुझे सौगात सी दे गया।
निश्छलता से उसकी,
प्रण-प्राण अब भी गुंजित हैं।
मधुर समृति सा अब,
हॄदय में संचित है।
तुम बिन आँखों की ओस,
शब्दों में ढलती रही है।
बिन पहिए ज़िन्दगी,
रफ़्तार से चलती रही है।
तेरे मेरे बीच जब ,
ह्रास की रेखा खिंच गई।
तब चिर ह्रास की कहानी,
चिर विषाद में बदल गई।
तुम बिन हर शाम मेरी,
मुस्कुरा कर तुम्हारे ही,
ख़यालों में ढल गई।
— ज्योति अग्निहोत्री