अथाह प्रेम
दिल लगाया भी तो
तुमसे पत्थर से।
खैर कहते हैं न कि
प्रेम में वो ताकत होती है
जो पत्थर को भी पिघला
देती है और..
मेरे प्रेम की तासीर भी देखना
खींचकर तुम्हें ले ही आएगी
आगोश में ।
तुम पत्थर नहीं जानती हूँ
तुम तो सागर हो ..हां सागर
अथाह प्रेम का सागर।
मैं एक नदी ।
देखना एक दिन तुम्हें
अहसास करा ही देगी
मेरी मोहब्बत कि
तुम पत्थर नहीं।
प्रेम हो और जब ये अहसास होगा
तो तुम, तुम नही रह जाओगे ।
तब तुम इस नदी में मिलकर
हो जाओगे।
अथाह प्रेम का सागर और तब
तुम्हे भाने लगेगा पंछियों का कलरव।
कोयल की कुहक और पपिहरे का बोल भी।
रहट के झर-झर बहते पानी मे तुम सुनोगे फिर
कोई संगीत।
हवा के झोको से हिलते पत्तो की
गड़गड़ाहट भी कानों को लगने लगेगी
प्यारी बहुत प्यारी
विश्वास न हो तो देखो
दर्पण में अपनी आंखों को।
कितनी गहरी हैं और डूब चुका है कोई
मुझसा ।
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”