जीना ही है जो,
तो तू आग बन के जी।
खुद को मार के,
तू न यूँ ख़ाक बन के जी।
देख के भी अन्याय,
न तू यूँ,
होठ सी के जी।
लाशों को कहाँ कब?
अन्याय दिखता है।
उनसे तो धुआँ ही उठता है।
जीना ही है जो,
तो तू आग बन के जी।
खुद को मार के,
तू न यूँ ख़ाक बनके जी।
युवा हो तुम,
शलाखा-सा तुम्हें,
जलना होगा।
माँ भारती की संतति,
तुम्हें प्रलय में भी,
पलना होगा।
छलना नहीं है अब स्वयं को,
आत्मबल में अब तुम्हें ढलना होगा।
— ज्योति अग्निहोत्री