रेत का बुलबुला
तन्हाइयों में अक्सर होता है ऐसा आजकल
खुद ही रोती हूँ, खुद ही चुप हो जाती हूँ
दौर ऐसा भी गुजारा है नाखुदी का दिल ने
अतीत को सहेज कर दिल को मना लेती हूँ
ओढ़कर उदासियों की चादर सुकून आता है
यही तो सच है जिंदगी का चलो हँस लेती हूँ
चाँद कब हुआ है किसी का तारों के सिवा
कवि की कल्पना को एक भ्रम मान लेती हूँ
जिंदगी है सिर्फ रेत का चमकता बुलबुला
ख्वाइशों को जिंदगी का सत्य मान लेती हूँ
ऊष्मा से पिघल जाता होगा दुनिया का दौर
पत्थरों को इंसानों का प्रतीक मान लेती हूँ
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़