ग़ज़ल
इस दश्त-ए-तनहाई में और कोई न था
मुझे लगा कि कोई है मगर कोई न था
सब झुके हुए थे बोझ से मजबूरियों के
पूरी बस्ती में उठा हुआ सर कोई न था
तुमने कह तो दिया उनको आवारा लेकिन
कहाँ जाते वो लोग जिनका घर कोई न था
पनाह मांगता तो मांगता भला किससे
पूरे शहर में खुला हुआ दर कोई न था
मेरे हालात ने कायर बना दिया मुझको
वो भी दिन थे जब मुझे डर कोई न था
— भरत मल्होत्रा