कविता

जब भी अकेली होती हूँ

जब भी अकेली होती हूँ
जी लेती हूँ
अपने बीते हुए लम्हें को
जिसमे न कोई बंधन न किसी की आज्ञा
और न किसी की सलाह होती थी
बस खुद मन का मालिक बन
स्वछंद जीने की चाह होती थी
जब भी……….
लगा लेती हूँ जोरो की ठहाके
जिसमे न किसी की रोक न टोक होती थी
बस बेफिक्र हंसने की होड़ होती थी
जब भी……..
याद कर लेती हूँ
सखियों के संग बिताएं हुए पल को
जिसमे बेमतलब की बातें करते घंटों बीत जातें थे
फिर भी समय कम ही पड़ जाते थे
जब भी………
याद कर लेती हूँ बिताये हुए बचपन का घर आंगन
जिसमे रौनक मेरी आवाज़ और चाल से होती थी
आज तो बस ये सब यादें बनकर रह गये हैं
जो अकेले पातें ही मेरे जेहन मे उतर
पुरानी यादों को दोहरा जाते हैं l
निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४