सामाजिक

बेटी से बहु बनने तक का सफर

एक बेटी से बहु बनना इतना आसान नहीं होता है जितना कि कहना। कहने को तो लोग कह देते हैं कि अब बेटी बहु मे कोई अंतर नहीं रहा लेकिन कह देना और उसे मान लेना दोनों मे अन्तर होता है। कहने को तो लोग कुछ भी कह देते हैं लेकिन उस बात को कब तक याद रखते हैं ये सबसे बड़ी बात होती है।
एक बेटी जब अपने मायके में होती है न जाने कितने ख्वाब सजाती है। कितनी भी बड़ी हो जाए लेकिन अपना बचपना नहीं छोड़ती, बेबाक सी हंसी, ठिठोली और सिर्फ मस्ती ही मस्ती सूझती है उसे, माँ पापा के आगे वह सदैव बच्चा बनी रहती है। दुनियादारी के रीति रिवाजों से दूर सिर्फ वह हर एक पल मे अपनी खुशी ढूंढती है। हंसने का एक भी मौका नहीं छोड़ती l छोटी छोटी बातों पर मुँह फुलाकर जिद पूरा कराना मानो उसका मकसद हो लेकिन जब यही बेटी बहु बन ससुराल जाती है तो पता न क्यों और कैसे इसकी बचपना, बेबाक सी हंसी, ठिठोली न जाने कहां गुम हो जाते हैं l अपने-आप को इतना सयानी मान लेती है कि जिसका अब तक माँ पापा ख्याल रखते थे अब वह दूसरों का ख्याल रखना शुरू कर देती है l जिद्द की तो बात ही छोड़ो बड़ी से बड़ी ख्वाहिशों को मन ही मन मार देती है l छोटी छोटी बातों पर रोने वाली लड़की बड़ी बात होने पर भी छुप कर रोती है ताकी कही कोई देख न लें l खुद रोती है खुद चुप होती है l अब तक जो सिर्फ अपनी खुशियाँ देखती थी, आज वहीं दूसरों के खुशी मे अपनी खुशी ढूंढ लेती है क्योंकि बस वह एक अच्छी बहु बन सबको खुश रखना चाहती है ताकि कहीं उसके वजह से उसके माँ पापा को कोई कुछ बोल न दे, क्योंकि अक्सर ससुराल मे लड़की कुछ भी गलती करें तो उसको सीधे ये बोल दिया जाता है कि तुम्हारे माँ बाप नहीं सिखाये? क्या संस्कार दिए हैं?.. बस यही सब से बचने के लिए वह अपनी तमाम खुशियों को न्यौछावर कर सब के खुशियों में अपनी खुशियाँ ढूंढ लेती है l
ससुराल चाहे कितना भी अच्छा हो लेकिन उसके मन में यही सब डर बना रहता है और फिर अचानक वह बेटी से बहु बन जाती है l
— निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४