भोर का तारा छिपा जाने किधर है
आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।
रक्त में डूबी हुई होती खबर है।
फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर
रात पूनम पर अमावस की मुहर है।
ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको
भोर का तारा छिपा जाने किधर है।
डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते
मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।
खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी
साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।
साज़ हैं खामोश चुप है रागिनी भी
गीत गुमसुम मूक सुर बेबस बहर है।
हसरतों के फूल चुनता मन का माली
नफरतों के शूल बुनती सेज पर है।
आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना
हर गली सुनसान सहमा हर शहर है।
– कल्पना रामानी