कोरोना-साहित्य
हुँ..हूँ..ऊँ..लिखास लगी है, लेकिन लिख नहीं पा रहा ! बड़ा अजीब है इस कोरोना-काल का असर! काम के दिनों में तो बात-बात पर लिखना हो आता था, बल्कि ऐसे समय का सृजन पाखंडी-साहित्य ही हो सकता है| लेकिन जैसे नशेड़ी के लिए नशा जरूरी हो जाता है, वैसे ही लिखने वाला लिखास की बेचैनी में सारा काम-धाम छोड़कर लिखने बैठ जाता है| लेकिन इधर क्या है कि लॉकडाउन मेें मिली फुर्सत में लिखास तो खूब लगती है लेकिन लिखना नहीं हो पा रहा! बल्कि लॉकडाउन के शान्त वातावरण में जैसे ही लिखने बैठता हूँ तो दिमाग में संशय का कीड़ा कुलबुलाने लगता है और इस अवधि में अपने ही लिखे के साहित्यिक-मूल्य पर दिमाग चकरियाने लगता है और फिर लिखना बंद!
दरअसल मन हमेशा सार्थक साहित्य ही रचने के फ़िराक में रहता है कि कैसेहूँ यह दुनियां बदले! और साहित्य में सार्थकता तभी आती है जब वह सरोकारी टाइप का हो और जिसमें दुनिया बदल देने की क्षमता हो! आखिर ऐसे ही साहित्य में सार्वकालिकता और सार्वजनीनता का गुण भी तो होता है!! वो कौन! हाँ शुकुल जी के शब्दों में ऐसे ही साहित्य में ‘सामान्यीकरण’ का गुण भी होता है, मतलब दूसरे की दुखती रग पर रखा कलम जैसे अपने ही दुखती रग पर रखा गया हो!! अपना दुख सबका दुख बन जाता है, साहित्य में इस फीलिंग के होने से ही दुनियां बदल सकती है|
हाँ तो, संशय इसी पर है कि इस कोरोना-काल में आदमियों के सरोकार बदलते दिखाई दे रहे हैं, जैसे आज यदि मैं भ्रष्टाचार की पीड़ा से संवेदित होता हूँ तो इसका सरोकारी मूल्य क्या होगा? क्योंकि कोरोना काल के बाद दुनियाँ बदल जाने की बात कही जा रही है ! आज एक कोठरी में दिन कट रहे हैं और एसयूवी चलने को मोहताज हैं, तो पैसा कमाने की क्या जरूरत रह जाएगी ? फिर तो भ्रष्टाचार भी एकदम ठप्प हो जाएगा ! जब भ्रष्टाचार ही नहीं तो इस विषय पर लेखन का क्या मतलब? ऐसे साहित्य को सुधीजन असरोकारी मानकर इससे मुँह बिचुकाते हुए निकल लेंगे, क्यों है न?
इसी तरह बढ़ाओ अब डीजल-पेट्रोल के दाम ! क्या फर्क पड़ता है| बल्कि एकदम से असली नोटबंदी के माफिक इसके दाम बढ़ने पर ‘आम-जन’ को छोड़कर गरीब तो खुश ही होगा ! क्योंकि गरीब को कार की सवारी नहीं करनी| इसने तो वैसे ही इस कोरोना-काल में पैदल ही पैदल बम्बई दिल्ली एक कर दिया है, मौका मिले तो ये पैदल ही दुनियां का भी चक्कर लगा आए! ऐसे में तेल के दाम से इनका क्या सरोकार! बल्कि यह तथाकथित ‘आमजन’ की धूर्तता ही है कि गरीबों के बहाने सदैव अपना उल्लू सीधा करता आया है| इसलिए तेल-फेल के बढ़ते दाम नोटबंदी की तरह एक बार फिर गरीबों के चेहरे पर मुस्कान लाने का कारण बनेगा !! तो, अब ऐसी परिस्थितियों में इस टाइप के विषय बौद्धिक व्यंग्यकारों के लिए सरोकारी विषय कैसे बन पाएंगे? फिर तो ऐसे साहित्यकारों की कलई ही खुल जाएगी कि ये आम आदमी की आड़ में गरीब विरोधी हैं!
इस तरह हम तो कहेंगे, कोरोना-काल के बाद व्यंग्यकारों के लिए सरोकारी विषय का टोटा पड़ने जा रहा है, और मेरा मानना है कि कोरोना से साहित्य की जिस विधा पर सबसे ज्यादा चोट पड़ती दिखाई दे रही है वह है व्यंग्य की विधा! व्यंग्यकार अब खाली होंगे या फिर किन्हीं नई विसंगतियों की तलाश करेंगे|
इधर कोरोना के पहले धर्मों के बीच आपसी लफड़े भी बहुत थे! इस लफड़े से उपजी पीड़ा ने खूब साहित्य रचे हैं, यह पीड़ा सार्वकालिक थी| कबीर जैसे महाकवि इसीलिए सार्वकालिक माने गए हैं, वे बेचारे इस लफड़े से जूझने के चक्कर में ही खरी-खरी कह गए हैं| लेकिन अब इस टाइप के साहित्य की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि कोरोना के धर्म ने सभी धर्मों की मिट्टी-पलीद करके रख दी है, अब किस मुँह से धार्मिक लोग अपने-अपने धर्मों की दुहाई देंगे? और अगर दुहाई देने की भूल करते भी हैं तो कोरोना महाराज घात में बैठे मिलेंगे! तो, साहित्यकारों के हाथ से यह विषय भी जाता रहा!! क्यों है न?
कुलमिलाकर जो काम साहित्य की तमाम विधाअों से नहीं हो पाया उसे कोरोना-साहित्य ने पलक झपकते ही कर दिखाया! हाँ जबर्दस्त समाज सुधार का काम किया है इसने! लेखकों, साहित्यकारों आदि सभी को इस कोरोना-साहित्य से सबक लेने की जरूरत है इसकी साहित्यिक मारक क्षमता अचूक है, जिसने मरघट पर आए शव-यात्रियों को एक झटके में उनके कर्मों की निस्सारता दिखा दिया है! भला इस कोरोना-साहित्य से बढ़कर किसी साहित्य की मारक क्षमता हो सकती है?
इस कोरोना के चक्कर में साहित्यकारों के न जाने कितने तरह के सरोकार अब अ-सरोकारी सिद्ध होते दिखाई दे रहे हैं| एक प्रकार से कोरोना ने हमारे विगत मूल्यों पर चोट पहुँचाई है और आगे आने वाले समय में इसे लेकर विमर्श बढ़ेगा! फिलहाल अभी इस पर कल्पना ही की जा सकती है, क्योंकि आदमी की फ़ितरत भी तो बहुत डरावनी होती है|
खैर जो भी हो, इस कोरोना-काल के बाद दुनियां वालों के ‘बिजनेस-मूल्य’ क्या होंगे! आज लोग इस पर उलझे हुए हैं| अपनी बात की पुष्टि में, टीवी पर ‘कोरोना के बाद का बिजनेस’ पर परिचर्चा में किसी के कहे का वाक्योल्लेख करता हूँ – “हमें कल्पना करना पड़ेगा कि आगे बिजनेस कैसे होगा?” इसे सुनकर कुछ ऐसी ही चिंता मुझे साहित्यिक-बिजनेस को लेकर हुई!इसलिए संशय में पड़ गया हूँ! कि कहीं कोरोना-काल के पश्चात की दुनिया में मूल्य बदले हुए मिले! फिर तो आज लिखने में की गई मेहनत बेकार चली जाएगी! कोरोना-काल में छायी इस अनिश्चितता पर सोचता हूँ,जैसे कोरोना-काल का वातावरण शीशे पर जमी धूल के साफ हो जाने जैसा पारदर्शी हो चला है, वैसे ही क्यों न कोरोनोपरांत की साहित्यिक दुनियां के सरोकारों के स्पष्ट हो जाने की प्रतीक्षा करूँ! तब लेखन हो!!
साहित्यकारों को भी अब इस विषय पर विमर्श करना होगा कि साहित्याकाश पर आ पड़े इस कोरोना-धूल के साफ होने तक, क्या लेखन को मुल्तवी रखना उचित नहीं होगा? आखिर सार्वकालिक और सार्वजनीन और मारक-साहित्य की रचना तभी न हो पाएगी! क्यों है न?
दरअसल मन हमेशा सार्थक साहित्य ही रचने के फ़िराक में रहता है कि कैसेहूँ यह दुनियां बदले! और साहित्य में सार्थकता तभी आती है जब वह सरोकारी टाइप का हो और जिसमें दुनिया बदल देने की क्षमता हो! आखिर ऐसे ही साहित्य में सार्वकालिकता और सार्वजनीनता का गुण भी तो होता है!! वो कौन! हाँ शुकुल जी के शब्दों में ऐसे ही साहित्य में ‘सामान्यीकरण’ का गुण भी होता है, मतलब दूसरे की दुखती रग पर रखा कलम जैसे अपने ही दुखती रग पर रखा गया हो!! अपना दुख सबका दुख बन जाता है, साहित्य में इस फीलिंग के होने से ही दुनियां बदल सकती है|
हाँ तो, संशय इसी पर है कि इस कोरोना-काल में आदमियों के सरोकार बदलते दिखाई दे रहे हैं, जैसे आज यदि मैं भ्रष्टाचार की पीड़ा से संवेदित होता हूँ तो इसका सरोकारी मूल्य क्या होगा? क्योंकि कोरोना काल के बाद दुनियाँ बदल जाने की बात कही जा रही है ! आज एक कोठरी में दिन कट रहे हैं और एसयूवी चलने को मोहताज हैं, तो पैसा कमाने की क्या जरूरत रह जाएगी ? फिर तो भ्रष्टाचार भी एकदम ठप्प हो जाएगा ! जब भ्रष्टाचार ही नहीं तो इस विषय पर लेखन का क्या मतलब? ऐसे साहित्य को सुधीजन असरोकारी मानकर इससे मुँह बिचुकाते हुए निकल लेंगे, क्यों है न?
इसी तरह बढ़ाओ अब डीजल-पेट्रोल के दाम ! क्या फर्क पड़ता है| बल्कि एकदम से असली नोटबंदी के माफिक इसके दाम बढ़ने पर ‘आम-जन’ को छोड़कर गरीब तो खुश ही होगा ! क्योंकि गरीब को कार की सवारी नहीं करनी| इसने तो वैसे ही इस कोरोना-काल में पैदल ही पैदल बम्बई दिल्ली एक कर दिया है, मौका मिले तो ये पैदल ही दुनियां का भी चक्कर लगा आए! ऐसे में तेल के दाम से इनका क्या सरोकार! बल्कि यह तथाकथित ‘आमजन’ की धूर्तता ही है कि गरीबों के बहाने सदैव अपना उल्लू सीधा करता आया है| इसलिए तेल-फेल के बढ़ते दाम नोटबंदी की तरह एक बार फिर गरीबों के चेहरे पर मुस्कान लाने का कारण बनेगा !! तो, अब ऐसी परिस्थितियों में इस टाइप के विषय बौद्धिक व्यंग्यकारों के लिए सरोकारी विषय कैसे बन पाएंगे? फिर तो ऐसे साहित्यकारों की कलई ही खुल जाएगी कि ये आम आदमी की आड़ में गरीब विरोधी हैं!
इस तरह हम तो कहेंगे, कोरोना-काल के बाद व्यंग्यकारों के लिए सरोकारी विषय का टोटा पड़ने जा रहा है, और मेरा मानना है कि कोरोना से साहित्य की जिस विधा पर सबसे ज्यादा चोट पड़ती दिखाई दे रही है वह है व्यंग्य की विधा! व्यंग्यकार अब खाली होंगे या फिर किन्हीं नई विसंगतियों की तलाश करेंगे|
इधर कोरोना के पहले धर्मों के बीच आपसी लफड़े भी बहुत थे! इस लफड़े से उपजी पीड़ा ने खूब साहित्य रचे हैं, यह पीड़ा सार्वकालिक थी| कबीर जैसे महाकवि इसीलिए सार्वकालिक माने गए हैं, वे बेचारे इस लफड़े से जूझने के चक्कर में ही खरी-खरी कह गए हैं| लेकिन अब इस टाइप के साहित्य की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि कोरोना के धर्म ने सभी धर्मों की मिट्टी-पलीद करके रख दी है, अब किस मुँह से धार्मिक लोग अपने-अपने धर्मों की दुहाई देंगे? और अगर दुहाई देने की भूल करते भी हैं तो कोरोना महाराज घात में बैठे मिलेंगे! तो, साहित्यकारों के हाथ से यह विषय भी जाता रहा!! क्यों है न?
कुलमिलाकर जो काम साहित्य की तमाम विधाअों से नहीं हो पाया उसे कोरोना-साहित्य ने पलक झपकते ही कर दिखाया! हाँ जबर्दस्त समाज सुधार का काम किया है इसने! लेखकों, साहित्यकारों आदि सभी को इस कोरोना-साहित्य से सबक लेने की जरूरत है इसकी साहित्यिक मारक क्षमता अचूक है, जिसने मरघट पर आए शव-यात्रियों को एक झटके में उनके कर्मों की निस्सारता दिखा दिया है! भला इस कोरोना-साहित्य से बढ़कर किसी साहित्य की मारक क्षमता हो सकती है?
इस कोरोना के चक्कर में साहित्यकारों के न जाने कितने तरह के सरोकार अब अ-सरोकारी सिद्ध होते दिखाई दे रहे हैं| एक प्रकार से कोरोना ने हमारे विगत मूल्यों पर चोट पहुँचाई है और आगे आने वाले समय में इसे लेकर विमर्श बढ़ेगा! फिलहाल अभी इस पर कल्पना ही की जा सकती है, क्योंकि आदमी की फ़ितरत भी तो बहुत डरावनी होती है|
खैर जो भी हो, इस कोरोना-काल के बाद दुनियां वालों के ‘बिजनेस-मूल्य’ क्या होंगे! आज लोग इस पर उलझे हुए हैं| अपनी बात की पुष्टि में, टीवी पर ‘कोरोना के बाद का बिजनेस’ पर परिचर्चा में किसी के कहे का वाक्योल्लेख करता हूँ – “हमें कल्पना करना पड़ेगा कि आगे बिजनेस कैसे होगा?” इसे सुनकर कुछ ऐसी ही चिंता मुझे साहित्यिक-बिजनेस को लेकर हुई!इसलिए संशय में पड़ गया हूँ! कि कहीं कोरोना-काल के पश्चात की दुनिया में मूल्य बदले हुए मिले! फिर तो आज लिखने में की गई मेहनत बेकार चली जाएगी! कोरोना-काल में छायी इस अनिश्चितता पर सोचता हूँ,जैसे कोरोना-काल का वातावरण शीशे पर जमी धूल के साफ हो जाने जैसा पारदर्शी हो चला है, वैसे ही क्यों न कोरोनोपरांत की साहित्यिक दुनियां के सरोकारों के स्पष्ट हो जाने की प्रतीक्षा करूँ! तब लेखन हो!!
साहित्यकारों को भी अब इस विषय पर विमर्श करना होगा कि साहित्याकाश पर आ पड़े इस कोरोना-धूल के साफ होने तक, क्या लेखन को मुल्तवी रखना उचित नहीं होगा? आखिर सार्वकालिक और सार्वजनीन और मारक-साहित्य की रचना तभी न हो पाएगी! क्यों है न?