सुख-दुख मन के दो भाव
हो मन के अनुकूल तो सुख
हो मन के प्रतिकूल तो दुख,
सुख-दुख मन की सोच है
प्राणी का अपना बोध है।
एक खुश रह कर झोपड़ी में
दूजा उदास महलों के सुख में,
सुख नहीं कोई ऊपरी आवरण
यह तो उपज आंतरिक है।
एक दुखी उड़कर उड़न खटोलेे में
पाकर सूखी रोटी दूजा खुश,
कामना कारण है दुख का
जितनी अधिक इच्छाएं जिसकी
दुख उतना होता है दीर्घ,
कुछ समय का दुख भी अच्छा
दे जाता जो सुंदर सीख।
इस पर नहीं वश हमारा
चक्रवत सब आते रहते
देकर ज्ञान लुप्त हो जाते,
दुख असीम लालसा का
रह जाता अनंत स्थिर,
जब तक ना इच्छाएं सीमित
यह बढ़ता ही जाता।
अंतर को खोखला कर
नकारात्मकता उपजाता।
छोड़ भूत भविष्य को
वर्तमान में जीना सीखो,
दास बनाकर इच्छाओं को
अनोखा आनंद लेना सीखो।
सुख-दुख दोनों उपज हमारी
फिर क्यों दुख की खेती बोए
मन को नियंत्रण में करके
सुख की खेती बोये खाये।
— निशा नंदिनी