सफारी सूट
लघुकथा
सफारी सूट
पहली तनख्वाह मिलते ही रामलाल ने पिताजी के लिए नया सफारी सूट खरीदा और सीधा पहुँचा स्टेशन रोड पर स्थित उनकी छोटी-सी चाय की दुकान पर। उसने सफारी खरीदने के बाद बचे लगभग 27 हजार रुपये लिफाफे में भरकर रख लिए थे। पहुँचते ही पिताजी के चरण स्पर्श कर बोला, “बापू, ये सफारी आपके लिए। और ये मेरी सेलरी के बचे हुए पैसे।”
आँखें भर आईं श्यामलाल की। इस दिन के लिए उसने पिछले बीस साल से क्या कुछ नहीं किए थे। काश ! उसकी माँ भी ये दिन देख पाती, जो पंद्रह साल पहले ही एक दुर्घटना में गुजर गई थी। छलकने को आतुर आँसुओं को रोकते हुआ बोला, “ये क्या रामा ? मेरे लिए नये सफारी सूट की क्या जरूरत थी ? अपने लिए कुछ ढंग के कपड़े लिए होते। मेरा क्या है मैं तो दुकान पर कुछ भी पहनकर काम चला लेता हूँ। तुम तो स्कूल में टीचर हो गए हो। ढंग के कपड़े तो तुम्हारे पास होने चाहिए। और ये पैसे, बेटा, ये अपने पास ही रखो।”
“नहीं बापू, ये महज सफारी सूट नहीं, मेरा सपना है, जो बचपन से ही देखता था। जब आप कड़ाके की ठंड में भी सुबह – सुबह फटी बनियान और शॉल ओढ़कर दुकान खोलते और देर रात तक उसी हाल में रहते, तो मैं स्कूल आते-जाते अकसर सोचता कि बड़ा होकर जब कमाने लगूंगा, तो सबसे पहले आपके लिए सफारी खरीदूँगा। बाकी के पैसे तो आपके पास ही रहेंगे, मैं आपसे माँग लिया करूंगा।”
बेटे को गले से लगा लिया श्यामलाल ने। आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी थीं। दुकान पर बैठे ग्राहक भी पिता-पुत्र की बातें सुनकर भावुक हो उठे थे।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़