पथिक
चल पड़ा है वह
कुछ थके थके कदमों से
कुछ उनींदा सा
सुनते हुए अपनी ही आहट
डरता है अपनी ही
परछाईयों से
चलना है और कितना
मुश्किल राहों पर
अनहद सा
असीम दूरी
दूर-दूर तक
छाया वीराना
विरक्ति के भाव लिए
जैसे फैला रेगिस्तान
लेकिन कहीं
मृगमरीचिका सी
खींचती है
वह पथिक
कदमों को रखता
चलायमान
पथरीली राहें
उबड़-खाबड़ सी रपटें
चहुंदिशा फैली
पर्वत श्रंखलाएँ
फिर भी वह
चलता रहता
चलता रहता
अस्ताचल के सूरज सा
और खो जाता है
दूर
बहुत दूर
अनंत वीराने में।