हास्य व्यंग्य

एक दृष्टि उत्तर कोरोनाकाल पर

अब फिर से इतिहास लिखा जा रहा था।कोरोनाकाल ने जो जख्म दिये थे, कुछ लोग उनको कुरेद रहे थे।शायद इतिहास होता ही इसीलिए कि उसी में क्षमता होती है गड़े मुर्दे उखाड़ने की।वह मुर्दों को भी चैन से नहीं रहने देता।मुर्दे खुद ही परेशान हो जाते हैं और कब्रों में एक दूसरे से कहते भी पाए जाते हैं कि भाई,मैंने ऐसा तो कुछ नहीं कहा था।दूसरा मुर्दा भी बोल उठता है कि तुम सही कह रहे हो।मैंने भी जो नहीं कहा,उसके बारे में बड़े दावे के साथ कहा जा रहा है कि वह बात मैंने ही कही थी।
लेकिन यह इतिहास ऐसा नहीं है और न ही यह किताबों में दर्ज होना चाहता।बस जीना चाहता है अपने ढ़ंग से!उत्तर कोरोनाकाल इतिहास का वैसा ही कालखण्ड है जैसा गुप्त काल, मुगल काल। और भी ऐसे कालखण्ड हैं रामायण, महाभारत से लेकर आजतक।इस काल तक आते आते मनुष्य की स्थिति यह हो गई है कि वह स्वयं पुरातत्व महत्व की वस्तु बनकर रह गया है।वह अब अपने परिवार के अलावा किसी को नहीं जानता।उसे अगर कहें भी कि-“अरे भाई निकल के आ घर से,आ घर से,दुनिया की दौलत देख फिर से, देख फिर से,” तो वह अपनी आँखें मूंद लेता है।उसे लगता है कि उसकी दुनिया, उसका संसार बस उसका परिवार है।बाहर के लोगों को देखकर उसे लगता है कि ये किसी दूसरे लोक से अवतरित हुए हैं।कोई भी एक दूसरे से मिलना नहीं चाहता।उन्हें लगता है कि ये युद्ध करने आए हैं और वायरस छोड़कर ही जाएंगे।
अब सभी कंदमूल खाकर ही अपना काम चला रहे हैं।मकान,भवन,बिल्डिंग की जगह कंदराओं ने ले ली है।सबके बाल बेतरतीब बढ़ गये हैं।स्त्री हों या पुरूष, पार्लर गुजरे जमाने की बात हो गए हैं।अब नाई-दर्जी की समाज में कोई भूमिका ही नहीं रह गई है।सब पेड़ो की छाल और पत्तियों से अपने अंग-प्रत्यंग को ढके हुए हैं।
उत्तर कोरोनाकाल का व्यक्ति बहुत शांतिप्रिय हो गया है।अब उसे कोई डर नहीं रहा,कोई उसे कंदराओं के अंदर नहीं धकेल सकता क्योंकि वह स्वयं ही कंदराओं के बाहर नहीं आता है।कंदराओं में ही उनके टैरेस गार्डन हैं और वहीं अपने कंद मूल वे उगा लेते हैं।कहीं किसी में बैर भाव नहीं है।कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं है और इसीलिए पुलिस का नाम नहीं सुना है।अब कोई बीमार भी नहीं पड़ता है क्योंकि सभी लैब कोरोना ने बंद करवा दी।
उत्तर कोरोनाकाल में कहीं कोई मीडिया या न्यूज चैनल नहीं है और न ही कोई सरकार है।शायद इसीलिए वे सुखी भी हैं और सुखी बने रहना चाहते हैं लेकिन जो इतिहास लिख रहे हैं, खतरा उन्हीं से बताया जा रहा है।संभवतः किसी आयातित वायरस से जिसके दूसरे लोक से आने की बात कही जा रही है।उत्तर कोरोनाकाल के लोग भयाक्रान्त होने लगे हैं।न तो वे अपना पुराना इतिहास जानना चाहते हैं और न ही कंदराओं से बाहर आना चाहते हैं।पुरानी स्मृतियों को वे रखना भी नहीं चाहते,इसीलिए सभी भग्नावशेषों को उन्होंने दफन कर दिया है।
अब वे विकास की कोई नई परिभाषा गढ़ना भी नहीं चाहते क्योंकि नदियों का जल स्वच्छ है,पर्वत अपनी ऊँचाई को छू रहे हैं।पशु-पक्षी खुलकर हवा में साँस ले रहे हैं।उत्तर कोरोनाकाल इंसान के जीवन का स्वर्ण काल है।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009