व्यंग्य : थूक-जादे
उनकी गिनती संसार के शूर-वीर जंतुओं की प्रजाति में होती थी। सड़क पर पुलिस के सामने चौराहे के यातायात सिग्नल को तोड़ कर वे ऐसे निकल भागते थे कि अभिमन्यु इस पराक्रम को देखकर दाँतों तले अँगुली दबा लेता और कभी चक्रव्यूह में नहीं फँसता। उन्हें किसी कीटाणु से डर नहीं लगता था। सब कीटाणु उनसे डरते थे। उनकी लार में सागर मंथन से निकले हलाहल से भी अधिक प्रखरता थी, जिसका प्रयोग वे वातावरण में व्याप्त सूक्ष्मतम कीटाणुओं को मारने के लिए थूक-थूककर करते थे। उन्हें अफसोस था कि सरकार ने उनकी थूक का प्रयोग कोरोना काल में सेनिटाइज़र बनाने के लिए नहीं किया। जिस कोरोना के नाश की दवा बनाने में वैज्ञानिक अपना माथा प्रयोगशाला में फोड़ रहे हैं, वह तो उनकी थूक में है। बेचारे इसका विज्ञापन करते, पर कोई ध्यान ना देता।
उन्हें गर्व था कि उनकी जमात के लोग सारे संसार में है और फिलहाल उनकी प्रजाति के लुप्त होने की कोई संभावना नहीं। ‘जिसको अल्लाह रक्खे, उसको कौन चक्खे’-यह उनके जीवन का मूल और आदर्श वाक्य थे। उनकी शूर-वीरता का आलम यह था कि वे तोप-मशीनगन और टैंक से भरे युद्ध के मैदान में सिर्फ अपनी थूक की पिचकारी छोड़ देते तो दुश्मन की सेना तबाह हो जाती। लेकिन थूक-जादों की प्रतिभा का सम्मान ये देश नहीं कर रहा यह सोचकर वे अपनी टोपी खिसका कर दाढ़ी खुजाते रहते।
हमारा देश थूकने के मामले में अंतर्राष्ट्रीय उत्पादन कर सकता है। पान खाकर जहाँ-तहाँ थूकना अशिष्टता कहलाती थी
इसलिए किसी ज़माने में थूक-जादे छोटा-सा पीकदान लेकर चलते थे। थूकने का मन हुआ तो डिबिया निकाली और उसमें थूक कर जमा कर लिया। फिर बाद शायद इत्र की तरह उपयोग करते थे। आजकल के थूक-जादे रूढ़िवादी नहीं हैं। उन्होंने सारे देश को ही पीकदान बना रखा है। उनका मन जहाँ हो वे वहाँ थूक सकते हैं। किसी पर भी। कहीं भी। कहीं भी।
थूकिये। खूब थूकिये। लेकिन ज़नाब, आसमान पर थूकने का परिणाम भी जानिए। घायल जानवर चाटकर अपनी थूक से अपने घाव भर लेता है, यह सर्वमान्य सत्य है। लेकिन घावों का इलाज करनेवालों पर थूकने का पराक्रम हमारे देश के थूक-जादे ही कर सकते हैं। इन थूक-जादों ने कपड़े उतारकर अपनी मर्दानगी की शान अपनी माँ को भी दिखाई, जिन पर हर किसी ने थूका। थूक-जादो संभल जाओ, कहीं ऐसा ना हो थू कर चाटना पड़े?
— शरद सुनेरी