नव संग्राम
पालघर पराया लगता अब भारत की माटी में।
यही देखना बाकी था ठाकरे की परिपाटी में॥
धरा पर जब रक्षक ही भक्षक बन जाता है ।
कृषक का मित्र केचुवाँ तक्षक बन जाता है॥
रावण ललकार रहा है राम की मर्यादा को।
प्यादा ललकार रहा है भू मण्डल के राजा को॥
जो पिण्ड दान कर चुके थे अपने ही हाथों से।
जो मतलब रखते थे आचार्य शंकर की बातों से॥
जो पूरा जीवन अपना दो रोटी पर जी लेते थे।
प्यास लगी तो अमृतमय गंगा जल पी लेते थे॥
जो सर्वस्व अर्पित किये थे धर्म की परिपाटी को।
जिसने अपने लहू से सींचा भारत की माटी को ॥
जिसने मानवता को वेदों का अक्षय ज्ञान दिया।
देवताओं को दधीचि ने अपनी अस्थि दान किया॥
मैं ऋषि पुत्र होने का धर्म निभाने निकला हूँ ।
मैं भारत के जन जन की पीडा गाने निकला हूँ ॥
तुम भी मेरे पथ पर अब राही बनकर आओ तो।
जो पीडा दिल में है जन जन को समझाओ तो ॥
शिवसेना अब शवसेना बनकर मौन खडी है,
राजनीति और धर्मनीति में नीति कौन बड़ी है ।
राजनीति की कुर्सी से स्वयं निर्णय तुम कर लेना ,
बाला जी शर्मिदा न हो एेसा कुछ तुम कर देना ।
उद्धव धर्म कर्म खो चुके है राजभवन के कोने में,
निश्चित विनाश लिखा रहता है निर्दोषों के रोने में ।
— राम ममगाँई ‘पंकज’