बेबाक खामोशी और मौन
कितनी मन्नतों के बाद कुछ बोलने लगा था मैं ! माँ थी वो । मगर उन्हें अपने ईश्वर पर श्रद्धा थी और मैं बोलने लगा।
तुम्हारे आने के बाद भी मैं बहुत कम बोलता था। बहुत लोग कहते, इन्हें बोलना ही नहीं आता। बात बढ़ती चली और कुछ लोग कहने लगें, बेबाक बोलना इनका स्वभाव है। जब नहीं बोलता था तो कहते थे, अभाव है।
बेबाकी ने मुझे अपने दुश्मनों का वैभव दिया, वो ठाठ दिया कि कुछ लोग आसपास ही न आतें। बात मगरूरी की नहीं, घमंड की नहीं मगर बेबाक बोलने वाला बेबाक सुनने का भी हौसला रखें तब वह ‘सत्य की साधना’ होती है। हर किसी के लिए संभव नहीं। बहुत ताकत चाहिए और बहुत संजीदगी और सावधानी भी।
खामोशी अच्छी लगती है मगर खामोश लोग खतरनाक होते हैं। ऐसा लगता है कि कितने मुर्दे दफ़न कर वो खामोश हो गया है। बेबाकी में भोलापन कभी कभी मूर्खता को छू लेता है और खामोश लोग मुस्कुराते रहते हैं।
ख़तरा दोनों से है। बेबाक आदमी मुँह पर तमाचा मार दें मगर दिल से बहुत साफ़ और नेकदिल होता है। खामोशी के पेट में सुषुप्त ज्वालामुखी होता है। वो कब आत्मघाती बनकर न सिर्फ खुद को, आसपास के कईं लोगों को दफ़न करने की योजना बना लेता है।
इंसान को समझना जितना मुश्किल है, उतना ही आसान है इंसानियत को समझना।
इंसानियत तब समझ में आती है जब आपके खून में संस्कार की पवित्रता हो, मन की सच्चाई हो, दिल का भोलापन हो और सबसे प्यार हो।
मैं आपको बहुत चाहता हूँ मगर बेबाक हूँ तो बयाँ कर देता हूँ। खामोशी और मौन का अंतर समझ पाओगे तो मेरा बेबाक अस्तित्व तुम्हें भा जाएगा। तुम जानते हो कि मैं खामोश नहीं रह सकता, मगर जब भी मौन हो जाता हूँ तो भारतीय ऋषि की अवस्था में होता हूँ।
– – पंकज त्रिवेदी