पर्यावरणलेख

रोग-मुक्ति का न्याय चाहिए पृथ्वी को !!

विश्व पृथ्वी दिवस की स्वर्ण जयंती पर विशेष
      पृथ्वी दिवस – कौन है यह पृथ्वी ? हम सभी भली-भांति जानते और पहचानते हैं पृथ्वी को. इसका सर्वश्रेष्ठ परिचय यही है कि सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड में मनुष्य प्रजाति को एक सुविधायुक्त जीवन उपलब्ध कराने वाली एकमात्र आश्रय-स्थली और उसीके योगदानों को सरंक्षित करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष हम 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाते हैं. वह पृथ्वी, जिसकी पवित्रता को बिना किसी पृथ्वी दिवस की औपचारिकता के ही हमारे पूर्वजों ने वर्षों तक अक्षुण्ण रखा और सही मायने में उसके प्रत्येक अंश की पूजा की और हम इसके लिए केवल एक दिन तय कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. हम सभी के लिए प्रश्न है की क्या हमने अपनी आश्रय-स्थली के साथ उचित न्याय किया? नहीं, हमने तो आसरा देने वाली के साथ ही विश्वासघात किया, अन्याय किया और निरंतर कर रहे हैं.
      एक आत्म-निरीक्षण कर जरा देखें की एक दिन में ऐसी कौन सी वस्तुएँ हैं जिन्हें उपयोग लिए बिना भी हम कई दिनों तक सुखपूर्वक रह सकते हैं. ऐसी कई वस्तुएँ हैं, परन्तु तथाकथित उच्च वर्ग में सम्मिलित होने के प्रयासों के चलते हम उनका इस्तेमाल बंद नहीं कर सकते. उसी उच्चवर्ग की जीवनशैली के दुष्परिणाम हुए की मध्यम वर्ग में भी आज उपभोक्तावाद बढ़ गया. इस सबमें हमनें निम्न वर्ग की मूलभूत आवश्यकताओं को भी दरकिनार कर दिया और इन सब कृत्यों का सारा भार वहन करना पड़ा हमारी अपनी पृथ्वी को. तथापि यह हमारी समझ के अनुसार हमारी जरूरतें पूरी करना था ना की कोई अन्याय. और आज केवल अतिसूक्ष्मदर्शी से ही दिख सकने वाले एक अतिसूक्ष्म विषाणु ने जब हमारी रफ़्तार को रोका, हमारे उन अमानवीय कृत्यों पर लगाम लगायी तो लगा जैसे पृथ्वी हल्की हो गयी. हवा, आकाश, पानी सब साफ़ हो गए, जहरीले धुंएँ और रसायनों से पृथ्वी कुछ क्षण मुक्त हुई और यूँ निस्तेज, दम तोड़ती पृथ्वी को पुनः साँसें मिल गयी. और ईश्वर को धन्यवाद दें की हमारा आसरा हमसे छीना नहीं गया क्योंकि आसरा छीनने का दर्द हमने कभी महसूस नहीं किया, इसे जानने के लिए तो उन पशु-पक्षियों से पूछना होगा जिनके आवास जंगल और पेड़ों को अपना अधिकार समझते हुए हमने अपने स्वार्थ हेतु खत्म कर दिया.
    यदि आज से चालीस-पचास वर्ष पूर्व तक कही जाने वाली उक्ति “आवश्यकता का रंज नहीं, अनावश्यक खर्च बिलकुल नहीं” को हम ‘जितना होगा वेस्ट, उतना होगा बेस्ट’ में नहीं बदले होते, तो शायद पृथ्वी रोगी नहीं बनती. इसका छोटा सा उदाहरण जैसे, आज कई विद्यालयों में एक सप्ताह की तीन-चार विभिन्न ड्रेस की अनिवार्यता है जिसकी आवश्यकता और उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाना फिजूल है, उसी प्रकार विभिन्न सामाजिक आयोजनों में बन रहे सुस्वादु पकवानों की लिस्ट की गिनती करना भी संभव नहीं हो पाता, जहाँ ना तो पेट भरता है ना ही भूख, परन्तु फिर भी होड़ है सबसे आगे बढ़ने की, सबसे अच्छा दिखने की, फिर भी खुशियों का अभाव ही रह जाता है. सोचें की क्या आज से तीन-चार दशक पूर्व भी क्या हम इन सभी क्रियाकलापों को बिना पृथ्वी को नुक्सान पहुंचाएं प्रसन्नता से नहीं संपन्न करते थे?
      शायद ये सब हमेशा रह सकता था यदि पृथ्वी के स्वास्थ्य का कुछ दायित्व हम सभी ने लिया होता. यदि हमारी जीवनशैली स्वस्थ होती जिसमें संतुष्टि की संपत्ति होती, जहाँ अनावश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अंधाधुंध दोहन और अत्यधिक उत्पादन की जरुरत नहीं होती, जहाँ आवागमन की अवांछित आवश्यकताओं को वर्तमान डिजिटल तकनीक से ही पूरा कर लिया जाता और जहाँ मनुष्य की उस असीमित को पाने की चाह को सीमित से पूरा करने के बजाय उस असीम परम सत्ता से पूर्ण करने की शिक्षा-दीक्षा दी जाती ताकि भौतिकतावाद से पृथ्वी के सीमित संसाधन बेरहमी से समाप्त नहीं होते.
    अभी भी वक्त है कि हम समझ जाएँ, संभल जाए और संभालें अपनी पृथ्वी को जो सदियों से हर पल हमें समर्पित है, इस प्रत्याशा में की हम भी उसकी आवाज को सुने, बदले अपनी जीवनशैली को, दूर करें स्वयं को उन गैर-जरुरी वस्तुओं के संग्रह से और आधुनिकता का उचित उपयोग करते हुए पृथ्वी को स्वस्थ बनी रहने दें, और इस पृथ्वी दिवस पर हमारी पृथ्वी को सदैव रोगमुक्त रखने का संकल्प करें ताकि हमारी ही आने वाली पीढ़ियां इस स्वस्थ ग्रह पर सुरक्षित रह सके.
— डॉ. वर्तिका जैन

डॉ. वर्तिका जैन

सहायक आचार्य, वनस्पति शास्त्र, राजकीय मीरा कन्या महाविद्यालय, उदयपुर-313001, राजस्थान