खट्टा-मीठा : अँधेरा क़ायम रहे
मैं अपने घर में दीया जलाये बैठा था कि बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। मैंने दरवाज़ा ज़रा-सा खोलकर झाँककर देखा तो एक भीड़ इधर-उधर थूकती आ रही थी और नारे लगा रही थी- ‘अँधेरा क़ायम रहे!’
मैंने घबराकर एक से पूछा- “कौन हो तुम ? क्या बात है?”
वह बोला- “हम रहनुमा किलबिस के अनुयायी हैं। हम थूक-थूककर सारे दीये बुझा रहे हैं। दीया मुर्दाबाद ! अँधेरा क़ायम रहे !! हमें चाहिए आजादी! थूकने की आज़ादी !!”
मैंने हैरान होकर पूछा- “तुम दीये क्यों बुझाना चाहते हो? दीयों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”
वह बोला- “हमारे रहनुमा किलबिस को दीये पसन्द नहीं हैं। उन्हें अँधेरा अच्छा लगता है। अँधेरा कायम रहे।”
मैंने आख़िरी कोशिश की- “क्या तुम्हें इस बात का डर नहीं है कि दीये वाले तुम्हारा थूक तुमसे ही चटवा देंगे?”
उसने कहा- “हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम जैसे थूकते हैं, वैसे चाट भी लेंगे। अँधेरा क़ायम रहे ! पिल्ला हू शूकर !”
मैं समझ गया कि इनके रहनुमा किलबिस ने इनका पूरी तरह ब्रेनवाश कर दिया है। अब तो दीये वाले ही इन थूकजादों को सूअर की विष्ठा में डालकर ठीक करेंगे।
— बीजू ब्रजवासी
वैशाख अमावस्या, सं २०७७ वि (२२ अप्रेल २०२०)