पिंजरे में बंद मानव
क्यों अच्छा लग रहा है न?
अब पंछियों की तरह
कैद होकर
तुम ही तो कहते थे न,
सब कुछ तो दे रहे हैं हम
दाना-पानी
इतना अच्छा पिंजरा
तो अब क्यों ?
खुद ही तड़प रहे हो
उसी पिंजरे में बैठकर।
क्यों बंधे हुए हाथ-पांव
अच्छे नहीं लग रहें तुम्हें?
मगर तुमने भी तो कभी
उड़ते हुए पक्षियों के
पंख बांधकर
सोने के पिंजरे में
उनको रखा था।
— राजीव डोगरा ‘विमल’