भारत के 4 माननीय राजर्षि !
जयप्रकाश और नानाजी की जयंती है, 11 अक्टूबर को; तो 11-12 अक्टूबर सेतारीख को लोहिया जी की पुण्यतिथि । जेपी यानी जयप्रकाश ने छात्र आंदोलन में शरीक होकर गुजरात से लेकर जहाँ बिहार में अब्दुल गफ़ूर की सरकार को उखाड़ फेंकने को लेकर जैसे सिर पर क़फ़न ही बांध लिये । विख्यात फ़ोटोग्राफ़र रघु राय के चित्रों में दर्ज़ जिस लाठी की मार से जेपी गंभीर रूप से घायल हुए, उनके लिए क़फ़न ही साबित हुए और यही तो ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की आग़ाज़ साबित हुई, जो कि प्रियदर्शिनी इंदु गांधी की चूलें हिला कर रख दी । इसी बीच लोहिया भी इंदु से हिसाब मांगने लगे।
बकौल लोहिया– ‘ज़िंदा कौमें पाँच बरस इंतज़ार नहीं करती ।’ …. तो महाराष्ट्रीयन नानाजी ने भारत भ्रमण कर तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बतौर प्रवक्ता बन समाजवादी राष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार कर देशभक्ति की लौ जगा दी । नानाजी की 101 वीं जयंती वर्त्तमान भारत सरकार के माने तो अहम है, जिनमें सिद्धांत और प्रतिबद्धता अनोखेपन लिए है । हालांकि लोहिया के अंदर आर एस एस का आदर्शवाद रूप गृह था, किन्तु जब गांधीजी की हत्या पर जब आर एस एस को घसीटा गया था, तो जेपी ने डंके की चोट पर न केवल आर एस एस का बचाव किया था, अपितु चट्टान की भांति अडिग होकर कहा था– ‘अगर वो अपराधी है, तो मैं भी अपराधी हूँ ।’
जेपी की जन्मस्थली मूलतः बिहार के सारण (छपरा) जिले के सिताब दियारा है, तथापि इस दियारा का कुछ हिस्सा उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में भी है । कुल मिलाकर तीनों की हृदयस्थली बिहार और उत्तर प्रदेश रही हैं ! हालाँकि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी जयप्रकाश नारायण पर ओजस्वी कविता की रचना की है, बावजूद खुद जेपी ने 9 अगस्त 1975 में चंडीगढ़ जेल से अपने ऊपर जो आत्म-कविता लिखा, वह कविता वर्त्तमान बोध में जयप्रकाश नारायण के साथ-साथ नानाजी, लोहिया यानी तीनों के प्रसंगश: सटीक अवधारित होती है, द्रष्टव्य :-
“जीवन विफलताओं से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं !
सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे !”