माँ तब, वो पत्नी बनी पिता की जब !
माँ तब,
पत्नी बनी किसी की जब !
प्रेमी ने किए प्रेमिका से प्रेम तबतक,
वासना में लिप्त पति नहीं बना जबतक।
सहज नहीं हुई पत्नी, हुई जबरन प्रथम सहवास,
पति ने कर योनि क्षत-विक्षत, लिए आनंदाहसास।
पेडू दर्द से छटपटाती पत्नी, यह कैसी केमिस्ट्री है,
पति के लिए ‘विवाह’ सिर्फ ‘रेप’ की रजिस्ट्री है।
रोज कर वीर्यपात, यूटेरस भरती चली गयी,
‘भ्रूण’ की पंखुरी ने कहा- पत्नी पेट’से हो गयी।
रोज मिलने लगी, सेब-काजू-विटामिन,
पत्नी भी ‘औरत’ बन इनमें हो गई तल्लीन।
एक दिन पति, देवर, सास, ननद ने कहा, गिरा दो,
भ्रूण में बेटी है, हाँ, बेटी है, बेटी है, गिरा दो।
एक रात बेहोश कर गर्भपात करा दी गयी,
न कंडोम, ना कॉपर-टी, खुला खेल फर्रूखाबादी।
अहसास हुई, औरत ही औरत की ख़ाला है,
संभोग, सहवास, चिरयौवना ही गड़बड़झाला है।
फिर से वही खेल, सोची, क्या योनि ही औरत है,
ओठ, छाती, कमर, नितम्ब ही क्या औरत है ?
पति का अर्थ सिर्फ प्रजनन भर है, यही प्रेम है,
सृष्टि की रचना के लिए ऐसी व्यायाम, तो शेम है।
ससुराल जो गेंदाफूल थी, आज भेड़ियाशाला है,
सुना वे सब खुश है इसबार, गोविंदा आला है।
गर्भ से हुई पुत्रपात, छठी भोज, बोर्डिंग का सफर,
नहीं विश्राम, ताने मिले, दिन दर-दर, रात बेदर।
मैं रह गयी पत्नी, मर्द पति का फिर वही खेल,
घिन्न आ गई, ज़िन्दगी से, पत्नी का पति ही जेल।
पुत्र से भी घृणा हो गयी, बड़े होकर पति बनेंगे,
किसी लड़की से प्यार जता, ‘रेप’ की रजिस्ट्री करेंगे।
तब मैं भी सास बन, इन हादसों की गवाह रहूँगी,
यह कैसी सिलसिला, तब विरोध कर नहीं सकूंगी।
क्या ऐसे ही बनती है ‘माँ’, पतिव्रता, पुत्रव्रता,
एकल काव्यपाठ की भाँति, एकल रेपकथा ।
माँ मतलब कुंती, मरियम भी, द्रोपदी-गांधारी,
औरत देखती रही, शादी-सदी अंधा’री !
अच्छी थी जब कुंवारी माँ बनी, हुए थे वीर बच्चे,
कर्ण, यीशु सच्चे थे, अबके बच्चे हैं लफंगे-लुच्चे।
सभी माँ मिल, यह प्रण ले, नहीं करें कोई नवसृष्टि,
नहीं होंगे रेप वा करप्शन, नहीं रहेंगी तब कुदृष्टि ।
प्रेमी ने किए प्रेमिका से प्रेम तबतक,
वासना में लिप्त पति नहीं बना जबतक।
सहज नहीं हुई पत्नी, हुई जबरन प्रथम सहवास,
पति ने कर योनि क्षत-विक्षत, लिए आनंदाहसास।
पेडू दर्द से छटपटाती पत्नी, यह कैसी केमिस्ट्री है,
पति के लिए ‘विवाह’ सिर्फ ‘रेप’ की रजिस्ट्री है।
रोज कर वीर्यपात, यूटेरस भरती चली गयी,
‘भ्रूण’ की पंखुरी ने कहा- पत्नी पेट’से हो गयी।
रोज मिलने लगी, सेब-काजू-विटामिन,
पत्नी भी ‘औरत’ बन इनमें हो गई तल्लीन।
एक दिन पति, देवर, सास, ननद ने कहा, गिरा दो,
भ्रूण में बेटी है, हाँ, बेटी है, बेटी है, गिरा दो।
एक रात बेहोश कर गर्भपात करा दी गयी,
न कंडोम, ना कॉपर-टी, खुला खेल फर्रूखाबादी।
अहसास हुई, औरत ही औरत की ख़ाला है,
संभोग, सहवास, चिरयौवना ही गड़बड़झाला है।
फिर से वही खेल, सोची, क्या योनि ही औरत है,
ओठ, छाती, कमर, नितम्ब ही क्या औरत है ?
पति का अर्थ सिर्फ प्रजनन भर है, यही प्रेम है,
सृष्टि की रचना के लिए ऐसी व्यायाम, तो शेम है।
ससुराल जो गेंदाफूल थी, आज भेड़ियाशाला है,
सुना वे सब खुश है इसबार, गोविंदा आला है।
गर्भ से हुई पुत्रपात, छठी भोज, बोर्डिंग का सफर,
नहीं विश्राम, ताने मिले, दिन दर-दर, रात बेदर।
मैं रह गयी पत्नी, मर्द पति का फिर वही खेल,
घिन्न आ गई, ज़िन्दगी से, पत्नी का पति ही जेल।
पुत्र से भी घृणा हो गयी, बड़े होकर पति बनेंगे,
किसी लड़की से प्यार जता, ‘रेप’ की रजिस्ट्री करेंगे।
तब मैं भी सास बन, इन हादसों की गवाह रहूँगी,
यह कैसी सिलसिला, तब विरोध कर नहीं सकूंगी।
क्या ऐसे ही बनती है ‘माँ’, पतिव्रता, पुत्रव्रता,
एकल काव्यपाठ की भाँति, एकल रेपकथा ।
माँ मतलब कुंती, मरियम भी, द्रोपदी-गांधारी,
औरत देखती रही, शादी-सदी अंधा’री !
अच्छी थी जब कुंवारी माँ बनी, हुए थे वीर बच्चे,
कर्ण, यीशु सच्चे थे, अबके बच्चे हैं लफंगे-लुच्चे।
सभी माँ मिल, यह प्रण ले, नहीं करें कोई नवसृष्टि,
नहीं होंगे रेप वा करप्शन, नहीं रहेंगी तब कुदृष्टि ।