मृदुल कूक
तुम कूक उठी
मृदुल-मृदुल
ये गान तुम्हारा अमर रहे |
प्रेमीजन सुन कूक तुम्हारी मगन रहे ||
तुम काली-काली
रुप न देखा जग
स्वर उतर जाये उर |
जैसे प्रेमी की हूक अमर ||
स्वच्छ गगन तले
घने पातों के बीच छिपे
कंठ तुम्हारा अमृत बर्षाये |
गा-गाकर अमर गान स्वयं ही हर्षाये ||
कोकिल प्यारी
श्याम छवि न्यारी
गूँज रही बागों में ध्वनि तुम्हारी |
तुम गाओ नित-नित, हम सुनेंगे मृदुल कूक तुम्हारी ||
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा