कविता

घर में बैठे हार गए, और रोजे वाले जीत गए।

कोरोना से युद्ध हुआ, संघर्ष में कई दिन बीत गए।
घर में बैठे हार गए, और रोजे वाले जीत गए।।
हमने अपना विश्वास रखा, लॉक डाऊन और कर्फ्यू पर,
खुला बाजार, लगी भीड़, गली, नगर चौराहों पर।
तुष्टिकरण की राजनीति में सारा हर्ष समाप्त किया,
रमजान की शुभकामनाएं मिली, माँ दुर्गा और भगवान को बिसरा दिया।।
मजदूर, श्रमिकों, किसान की खातिर,
लॉक डाऊन पर विचार होना ही था।
3 मई को निश्चित हुआ,
संकल्प को दृढ़ तोलना ही था।।
सौंपकर कमान प्रदेशों को मनमर्जी का रास्ता खोल दिया,
देशभक्ति के ह्रदय में खंजर सस्ती राजनीति ने घोंप दिया।
योद्धाओं के बलिदानों का थोड़े दिन और मान रखा होता,
खुलना ही था लॉक डाऊन, सभ्य समाज का ध्यान रखा होता।।
नही हटेंगे प्रतिबंध, संदिग्ध गलियों और चौबारों से,
फिर भी कितना पालन होगा देकर छूट त्यौहारों में।
त्यौहार ही मनाना हो तो घर में मनाया जा सकता था,
देवी, राम, हनुमान, परशुराम जन्म की तरह, रामदान भी समझाया जा सकता था।।
कुछ दिन की सावधानी हमें त्रासदी से बचा सकती थी,
विश्व ने जो की नादानी, उससे हमें समझ आ सकती थी।
पर्व त्यौहार आते और जाते रहेंगे,
जिएंगे तो हर साल रमज़ान मनाते रहेंगे।।
न थमेगा ज्वार जो उठेगा भीड़ बाजारों से,
जैसे फैला था भारत में संक्रमण जमात और मजहबी नारों से।
आखिरी बाजी वही चलेगा जो घर में बैठकर खेलेगा,
देश अब भी जीतेगा और कोरोना अब भी हारेगा।।
— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश