गीति नाट्य : सुधन्वा
प्रस्तुत गीति-नाट्य “सुधन्वा” में 12 पात्र 12 आयामों का प्रकटीकरण है, यथा:- कालचक्र, अश्वमेध-यज्ञ, अश्व, महाभारत, काल, चम्पकपुरी, राजा हंसध्वज, शंख-लिखित, अवतार, भारतवर्ष, कृष्णार्जुन और सुधन्वा। ध्यातव्य है, ‘सुधन्वा’ ऐतिहासिक नायक थे।
●●कालचक्र
सृष्टिपूर्व मैं शब्द था, फिर अंड – पिंड – ब्रह्माण्ड बना,
जनक-जननी, भ्रातृ-बहना, गुरु-शिष्य औ’ खंड बना ।
हूँ काल मैं, शव-चक्र समान, सत्य-तत्व, रवि-ज्ञान भला,
प्रकाश-तम, जल-तल, पवन-पल, युद्ध-शांत, विद्या-बला।
परम-ईश्वर, सरंग-समता, पूत – गुड़- गूंग आज्ञाकारी बना,
देव-दनुज, यक्ष-प्रेत-कीट, मृणाल-खग मनु उपकारी बना।
युग-युग में अनलावतार हो, जम्बूद्वीप में कर्म बना,
मर्म के जाति-खंड पार हो, कि कर्तव्य राष्ट्रधर्म बना ।
हूँ संत-पुरुष, अध्यात्म-विज्ञ, तो पंचपाप को पूर्ण जला,
अकर्म-शर्म, कर्मांध-दर्प, तांडव – नृत्य – कृत्य स्वर्ण गला ।
हर्ष – उत्कर्ष हो सहर्ष मित्र , अपना जीवन – संग बना ,
त्याग – सेवा, संतोष – उपासना का, क्लीव – अंग बना ।
रस – अपभ्रंश में, गीति – नाट्य – कवि, ऊँ – भक्ति बना ,
भक्ति की अभिव्यक्ति से , मुक्ति की शक्ति बना ।
●●अश्वमेध-यज्ञ
केवल घोड़ा छोड़ कहलाना , चक्रवर्ती, अश्वमेध नहीं ,
लौट अश्व , उस यज्ञस्थल पर, यह भी अश्वमेध नहीं ।
होता अश्वमेध बहु – अश्व – मुक्ति का, यज्ञ महान ,
होमादि में प्रवाह पाप कर , बन पांडव अज्ञ – महान ।
त्रेता में रामचंद्र ने किया, अश्वमेध का दूत – गमन ,
अश्व – असुर – पशुबुद्धि, पान – मद्य औ’ द्यूत – जलन ।
जहाँ राम ने माया सीता की, स्वर्ण – मूरत बनाया था ,
द्वापरा युद्धिष्ठिर तहाँ पर्वत से , रतन-जवाहरात लाया था ।
ऋचाओं के मन्त्र – सिद्धि से , आदि में यश-गान हुआ ,
यंत्र – तंत्र के परा प्रणाली से , उषाकाल का भान हुआ ।
विजय जहां विशेष है, जय की महिमा वहाँ अपार ,
है हवनकुण्ड में अक्षत की , मंडित गरिमा – संसार ।
हो आकाशी पुष्पवर्षा , पर स्वहितार्थ जो, अश्वमेध नहीं,
क्षमा ,दया , दीन – रक्षा – पूजा, जीव – सेवा , अश्वमेध सही।
●●अश्व
कोई गिनती नहीं,पशु में अश्व की,अश्व असत्य में सत्य है,
सृष्टि काल-ग्रास में, पृथ्वी पर जीवन, सबके सब मर्त्य है ।
रथ में जुते जहाँ अश्व है, कि सारथिहीन मन चंचल है,
राजप्रासाद की बात विदाकर, वन में ग्राम – अंचल है ।
अश्वारोही चमत्कृत, पामर – मन जब वश में हो ,
हस्ती औ’ वनकेशरी – शक्ति, कि अश्व जब वश में हो ।
शांति – अश्म में रस्म देकर, अश्वमन जीता जाता है ,
शान्ति-द्वार से स्वर्गद्वार होकर, हरिद्वार खुल जाता है ।
रूप अश्व है, गंधहीन भी, ज्ञानहीन भी हो सकता है ,
चक्रवर्ती बननेवाले अश्व , दूसरे का उपभोक्ता है ।
मत्स्य, कच्छप, शूकर और पशु-ढंग नरसिंहावतार है ,
पशु है निश्चित ही महान, ज्ञान – रुपी दशावतार है।
विशाल अश्व हूँह ! अश्व – पीठ पर चाबुक पड़े ,
वेदाध्ययन करते – करते , कि ज्ञानी शम्बूक मरे ।
●●महाभारत
अहम् वृक्ष का फल रहा, तब भारत आगे ‘महा’ लगा ,
महा शब्द,पर महान अलग ,औ’ मित्र, भाई, अहा ! सगा !
घृण-पापी अत्याचारी कंश, जहां रावण बन बैठा था ,
राम तहाँ कृष्ण बन प्रभाकर, मुक्त हस्त ही ऐंठा था ।
सुदामा ने दीनबंधु बताया, सांदीपनि देकर आशीष ,
खंड – द्वय जरासंध, शिशु-द्रथ, द्रोण-कर्ण देकर शीश।
स्थिर युद्ध में धन-शासन ने, कटु वाक्य-व्यवहार किया,
भीमसेन ने तब अंध-पुत्र औ’ हृदयरोगी का आहार किया।
मिले बधाई और मिठाई, गांडीव और पाञ्चजन्य को,
कृष्ण अकेला मार गिराये, क्या, कौरवों के भारी सैन्य को ।
अंत महाभारत – समर, जीवित शेष , रहने लगे उदास ,
बैकुंठ-शोक पर कृष्ण के , चिंतित रहने लगे पांडव – दास ।
ग्रहण कर भीष्मक-विचार, बन इठलाये गुरु-जगत व्यास ,
करे कौन-से पुण्य कर्म हो, कि सत्य-स्वर्ग की बँधेगी आश।
●●चम्पकपुरी
मिथिलांचल में पाटलिपुत्र-सा, कुशध्वज की रज्जधानी थी ,
अवतार वैदेही माता जानकी, कि स्वयं शक्ति भवानी थी।
पुष्प पाटल की सुरभि में , चंपा भी एक सहेली थी ,
कि मैके – माँ की घर में , दम खेल मेल’से खेली थी ।
चम्पक वन में चमचम – सी , नगरी चम्पकपुरी बसी थी,
राज – दुलारे गगन – सितारे, चकमक’से रवि – शशि थी।
मंथन पर सागर को जहाँ , अमृत और विष देना पड़ा ,
नीलकंठी – कल्याणकर – शिव को,विषपान क्यों लेना पड़ा ?
चम्पकपुरी थी सौम्य – सुन्दर , हा-हा सत्य कैलाशपुरी थी ,
राजा – प्रजा के बीच समन्वय , समता न्याय – धुरी थी ।
हंसध्वज थे वीर राजा , पर धीर – गंभीर नहीं थे ,
श्रवण – शक्ति क्षीण उनकी , मंत्री वाक् – पटु सही थे।
रीति – प्रीति की बात समर में , रेणु ही अणु बनती है ,
धर्म के निर् महाप्राण में ही , उत्तम परम – अणु बनती है।
●●राजा हंसध्वज
समाचार यहाँ , घोड़ा यज्ञ का , नगर – प्रवेश किया है ,
पकड़ो – पकड़ो का आदेश , हंसध्वज महेश किया है ।
स-अक्षर के साक्षर पुत्र, पंच पुत्र थे पांडव समान ,
एक – एक बल – आज्ञाशाली, वे किशोरवय के जवान ।
सुगल ज्येष्ठ पुत्र थे ताकतवर , ब्रह्मास्त्र वह पाया था ,
दिशा उत्तर का रक्षा – भार , संभालने वह आया था ।
मंझले पुत्र सुरथ ने , रथ – कवचास्त्र पाया था ,
दक्षिण दिशा का रक्षा – भार , हाँ, वह संभालने आया था ।
सम नाम था, संझले का , की सर्वास्त्र वह पाया था ,
रक्षक बने वो पूर्व दिशा के , वे ही संभालने आया था ।
चौथे पुत्र सुदर्शन ने , मोह दर्शन के मोहास्त्र पाया था ,
पश्चिम दिशा का रक्षा – भार , संभालने को आया था ।
औ’ कनिष्ठ थे सुधन्वा , घोड़ा उसे ही पकड़ना था ,
किशोर थे विवाहित वे, हा – हा , युद्ध उसे ही लड़ना था।
●●कालचक्र
दिन, सप्ताह, मास, वर्ष तो प्रथम सभ्यता प्रतीक है ,
यूरेशिया या रोम-रोम अपभ्रंश , भारतवर्ष से दिक् है।
चैत्र जहाँ मार्च माह, सम्राट मार्स वा मार्च थे युद्ध-देवता ,
अप्रैल है वैशाख अमोनिया-एपरिट , है प्राक् शुद्ध देवता।
हिंदी – अँग्रेजी की साम्यता में, विक्रमी ईस्वी सन् है ,
एटलस-तनुजा-रूप मई है जेठ, तो मैया की तन – मन है।
जून गर्मी आषाढ़ ईर्ष्या , जूनो ज़ुपिटर की पत्नी थी ,
हिज़री क्या ? मुहम्मद की मक्का से मदीना भी मणि थी।
सावन-सुहावना जुलाई माह, जुलियस सीज़र के नाम पर ,
शेक्सपियर-अभिज्ञान शाकुन्तलम् या बच्चन के काम पर।
अगस्त आगस्ट्स भादो, कुंआर सेप्टेम्बर सप्तमवर था,
अष्टमवर कार्तिक अक्टूबर, अगहन नाम नवमवर था।
दशम् पूस दशमवर भाई, माघ जेनस बेन जनवरी थी,
मासांत भोज फेबुआ कारण,फागुन बहन की फ़रवरी थी ।
●●शंख-लिखित
शंख, लिखित दो ऋषि भाई थे, हंसध्वज के राज में ,
थे राजगुरु, राज-पंडित औ’ शास्त्र, ज्योतिष, काज में ।
वक्ता शंख, संतलेखक लिखित – दोनों थे लिपिबद्धकार,
पर मंथरा – सी कटु – कर्म, कटु – नारद थे निर्बन्धकार।
कथानक , चरित्र – चित्रण और संवाद के प्रेमी थे ,
शैली, देश, काल, उद्देश्य- रूपण, विवाद के प्रेमी थे।
दुर्बुद्धि आ घेरा गुरु को , आकर सुधन्वा ज़रा विलंब,
अवलंब पर राजा ने , कड़ाही तेल की मँगाया अविलंब ।
डब – डब करते तेल , बनाते जलकर आँच – ताप ,
मृत्यु – कारज कि शंख – लिखित मनतर साँच – जाप ।
कठोर चाम में बाहर , कि अंदर श्वेत कोमल नारिकेल,
परीक्षा लेने को आरद्ध वहाँ , कि गरम है या नहीं – तेल ।
गंभीर नाद, फल हुआ खंड, लगा कपाल में – से ठोकर ,
हुआ चित्त, लेकर धरा पर , संग मरण में – से सोकर।
●●अवतार
सर्व सिद्धांत व नियम का , पालन किया यीशु ,
तू पिता , परमेश्वर के पूत , मैं तेरा शिशु ।
यीशु है प्रभु , पिता ,पूत , नीति – रीति, युद्ध – शान्ति है,
गाँधी औ’ मार्क्स – विचार ही, महाबुद्ध – क्रान्ति है ।
मठ – मस्ज़िद या श्री गिरजा में, न रहता मेरा यीशु ,
तू पिता , परमेश्वर के पूत , मैं तेरा शिशु ।
यीशु के लीक पर , या लीक में संत मेंहीं है ,
जगत मिथ्या औ’ वर्तमान भी , पर ब्रह्म सही है ।
धन गया , धर्म गया या सबकुछ जाते रहा है ,
आदि का अंत होना , यही तो गुण – धरा है ।
कर्म का मर्म लिए धर्म का संगम अनूठा है ,
सत्यम् वद , पर अविश्वास – कारण झूठा है ।
मुझे तारण भी , दुलारन भी , करते हैं यीशु ,
तू पिता , परमेश्वर के पूत , मैं तेरा शिशु ।
●●भारतवर्ष
भारतवासी वीर बनो , ऋषियों की है यह वाणी ,
नेक, बहादुर, धीर बनो , तुम पक्के हिन्दुस्तानी ।
सीता, राधा, सती, सावित्री की, धरती यह न्यारी ,
गंगा, यमुना, सरस्वती – सी , नदियाँ पूज्या प्यारी ।
रामकृष्ण – सम परमज्ञानी का , देश हमारा है ,
विविध धर्म का मर्म – एक सिद्धांत हमारा है।
अपने आदर्शों पर है , कुर्बान जहाँ जवानी ,
नेक, बहादुर , धीर बनो , तुम पक्के हिन्दुस्तानी ।
वेद, कुरआन, गुरुग्रंथ, बाइबिल का, अद्भुत संगम अपना,
मानव – मानव एक बने , बस – यही हमारा सपना ।
रावण , कंश , हिरण्यक के, गौरव को ढहते देखा ,
आदर्शों की प्रतिमाएँ आयी, पढ़ी है सबने लेखा ।
जन्मे द्रोण, बुद्ध, गांधी और विदुर – से सच्चे ज्ञानी ,
नेक, बहादुर, धीर बनो , तुम पक्के हिन्दुस्तानी।
●●कृष्णार्जुन
गाण्डीव धरा, अर्जुन चला , रथ पर हो सवार ,
अश्वमेध का घोड़ा आगे , पीछे में सैनिक हजार ।
विजयी – विजयी की नाद , बात बहुत – ही पुरातन थी ,
घोड़ा हिन् – हिन् कर ठहरा , चम्पकपुरी भी पुरातन थी ।
अर्जुन के रथ पर अर्जुन केवल, न मातालि, न कृष्ण था ,
सारथी अलग थे अलग – वलग , न काली , न वृष्ण था ।
सामने अड़े थे – एक छोरे , छट्टलवन के अभिमन्यु थे ,
तब कुश-जैसे राम के आगे , वीर-बाँकुरे क्रांतिमन्यु थे ।
सुधन्वा – नाम कहलाता , दिया परिचय उन्होंने ,
सारथी कृष्णचन्द्र को बुला , कहा पुनः – पुनः उन्होंने ।
अर्जुन सोच रहा – जन्मे आगे मेरे , मेढक-सा टर्राटा है,
छोटी मुँह से बड़ी बात कह , परदिल को घबराता है ।
आत्म – स्मरण , कृष्ण – समर्पण, कर छोड़ा एक तीक्ष्ण वाण,
धराशायी हो, कृष्ण दर्शन कर , निकल सुधन्वा का प्राण ।
●●सुधन्वा
अंतिम – पात्र प्रवीर सुधन्वा को, धन्ना – धन से कोई मेल नहीं,
सन्तातिथि सेवक होकर भी , भगवान को पाना खेल नहीं ।
दृढ़-प्रतिज्ञ अटल सुधन्वा , द्वार पर भगवान लाना चाहता था,
तप की प्रतिगमन से आज , नहीं मौका छोड़ना चाहता था ।
सुधन्वा जब देखा वहाँ , तो कृष्ण नहीं थे बैठे ,
अर्जुन केवल खड़े – खड़े , गाण्डीव लेकर ऐ ऐंठे ।
कृष्णभक्त सुधन्वा , कृष्ण – दर्शन को ले बड़े उत्सुक ,
ललकार से कृष्ण बुला , हे नर ! अर्जुन से लड़े उपशुक ।
बच तेल कढ़ाही से निकल , सुधन्वा अमर बना था ,
तीन – तीर शपथ लेकर अर्जुन , यह समर बना था ।
त्रितीर गमन को काट दूंगा , ले सुधन्वा कृष्ण – शपथ ,
तीर -द्वय काटकर फिर सुधन्वा, तीसरा गिरा आधा कुपथ ।
अग्र – भाग में कृष्ण हरे ! दर्शन दे – दे चिंगारी ,
कटा ग्रीवा सुधन्वा का , कि जन्मना माँ की कोख ए प्यारी ।
(समाप्त)