जनचेतना का प्रगतिशील हिंदी कथा-पत्रिका ‘हंस’ : पुनर्मूल्यांकन के दौर में
हंस, मार्च 2020 अंक की उपलब्धि एकसाथ तीन सम्पादकीय का होना है। कथा सम्राट प्रेमचंद के द्वारा सम्पादित ‘हंस’ के पहले संपादकीय, नई कहानी आंदोलन के प्रणेता राजेन्द्र यादव के द्वारा सम्पादित ‘हंस’ के पहले संपादकीय और कथा-विधा के वरेण्य हस्ताक्षर संजय सहाय के द्वारा संपादित ‘हंस’ के संपादकीय-विचार अपनी-अपनी जगह सही है. हाँ, प्रेमचंद द्वारा संपादकीय-कथ्य मैंने प्रथम बार ही पढ़ा, किंतु राजेन्द्र यादव के संपादकीय (अगस्त 1986) को पहले भी पढ़ा हूँ. अभी दुनिया के प्रायः देशों में कोरोना वायरस जनित महामारी COVID-19 बहुत तेजी से प्रसरण कर रही है और मृतकों की संख्या ‘गुणक’ में बढ़ती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ-साथ भारत ने भी इसे महामारी और आपदा घोषित किया है. ऐसे में कथा या कथेतर की साहित्यिक समीक्षा की बात बेमानी लग रही है, इसलिए इस महामारी के बारे में और इसके निदानार्थ एक कविता के माध्यम से अपना विचार प्रकट कर रहा हूँ, जो कि ‘अपना मोर्चा’ के लिए है, यथा-
“कैसे बताऊँ मैं तुम्हें कि तुम मेरे लिए कौन नहीं, मिस कौना हो !
तुम तो मेरे लिए वीणा हो, मीना हो और इसी का नाम जीना हो !
क्या फरक पड़ता है, तुम्हें कटरीना कहूँ, रवीना कहूँ या करीना !
तुम तो मेरी जान हो, जौना हो, खुशी हो, क्रोध हो, रोना हो !
तुम अरमान मेरी, गुरुज्ञान मेरी, तुम अर्चना हो, स्वर्णा हो !
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें कि तुम मेरे लिए कौन नहीं, मिस कौना हो !
तुम आराधना, प्रार्थना मेरी; तुम अलौकिक, पारलौकिक हो;
तू पूजा है, तुम्हीं बंदगी, जिंदगी तू; हाँ-हाँ मैं ही गंदगी हूँ !
डॉक्टर तुम, मेरे हिस्से की हरवाकस तुम, हस्पताल तेरी !
तुम मेरी आत्मा हो, परमात्मा भी; रात सोना हो, सुबह खोना हो !
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें कि तुम मेरे लिए कौन नहीं, मिस कौना हो !
तुमसे कोई कहानी छिपी नहीं; यहाँ मेरी प्रतिभा बिकी नहीं !
तुम हो तो मैं आश हूँ, निराश-हताश भी, गले की खराश भी!
फ़्लू भी, छींक भी, जुकाम भी, मलेरिया और लवेरिया भी !
मानता हूँ, तुम शाकाहार हो, मैं निरा लम्पट, कमीना हूँ !
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें कि तुम मेरे लिए कौन नहीं, मिस कौना हो !
तू सर्द कम्पन रूखे-सुखे; मैं गर्म तवा की ताव पर भी हार हूँ !
तुम उषा हो, मैं पसीना भर; प्रात हो, रात भी, बात-बेबात भी !
तुम सफर हो, दुनिया देखी भी; मैं तो अंध औ’ अनदेखी भी !
तुम हो तो सिम्पलीसिटी है, तुम न हो तो मॉल-हॉल खिलौना हो !
कैसे बताऊँ मैं तुम्हें कि तुम मेरे लिए कौन नहीं, मिस कौना हो !
मैं ऋण हूँ, पर तुम रीना हो, मैं सफेद झूठ, तू चना-चबेना हो !
किस, हग, टच से गुस्से में हो, इसलिए दुनिया के हर हिस्से में हो !
तो हैंडशेक ना, हाथ-मुँह प्रक्षालन हाँ; तुमसे प्यार है कहो-ना !
तू 19 उमरिया प्यार मेरी, मैं ही कमीना, तू तो कोविड-कोरोना हो !
कैसे बताऊँ तुम्हें कि तुम मेरे लिए मिस कौना नहीं, मिसेज कोरोना हो!”
—- इसके साथ ही मेरे द्वारा रचित ‘कोरोना चालीसा’ भी पढ़ी जा सकती है!
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‘हंस’ का पहला दलित साहित्य विशेषांक ‘सत्ता-विमर्श और दलित’ अगस्त 2004 अंक के रूप में श्री श्योराज सिंह ‘बेचैन’ के अतिथि सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई थी, इसतरह की टिप्पणी सम्पादकीय में श्री संजय सहाय ने भी डाली है कि जिनमें अतिथि संपादक का सहयोग श्री अजय नावरिया ने किया था. उक्त अंक में मेरी स्वानुभूति-आलेख ‘मेहतरानी बहन और चमारिन प्रेमिका’ प्रकाशित हुई थी. अब 15 साल बाद ‘हंस’ के नवम्बर 2019 अंक का अतिथि संपादन कार्य डॉ. अजय नावरिया ने गुरुतर दायित्व के साथ निभाये हैं. सोशल मीडिया साइट ‘फेसबुक’ के माध्यम से डॉ. नावरिया के विचारों से प्रायशः अवगत होते रहता हूँ. प्रस्तुतांक में कवि मलखान सिंह को श्रद्धांजलि लेखक श्री नामदेव ने सादर अर्पित की है, तो इस अंक के प्रसंगश: यही कहना है कि इनमें अधिकांश प्रकाशित दलित कवि/लेखकों को ही जगह दी गई है, अप्रकाशित व कम प्रकाशित दलित कवि/लेखकों को नहीं !
इस अंक की बड़ी उपलब्धि श्री रूपनारायण सोनकर की स्वानुभूति (भटकटैया) है, जिनमें उनके द्वारा रचित वैज्ञानिकी फ़िक्शन ‘सूअरदान’ से चुराई और उड़ाई गई कथा और कथा-विन्यास से श्री राकेश रोशन ने किसप्रकार हिंदी फिल्म ‘कृष-3’ बना ली, फिर जिसप्रकार से सोनकर जी ‘सूअरदान’ के कॉपीराइट उल्लंघन के विरुद्ध लड़े तथा तब उनके लिए भारतीय न्यायिक व्यवस्था एक दलित साहित्यकार के लिए जटिलतम होती चली गई, यह तो उस समय उन्हें उतनी पीड़ा नहीं दे पाई थी, जब ‘सूअरदान’ शीर्षक पर ही ‘गोदान’ प्रशंसकों ने हल्लाबोल दिए थे. अंततः, सोनकर जी की जीत हुई, किन्तु उन्हें भारत के प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध अमर्यादित टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, अगर उसे सम्मान में क्षति हुई थी, तो इस हेतु ‘मानवाधिकार आयोग’ में जाते ! वैसे ‘हंस’ में प्रकाशित मेरे आलेख ‘मेहतरानी बहन और चमारिन प्रेमिका’ की कुछ पंक्ति ‘सूअरदान’ में प्रकाशित है, यह भी चौर्य कृत्य है.
प्रस्तुतांक में श्री बैठा की रचना (विचार-विमर्श) ‘बिहार राज्य और दलित साहित्य’ भी ‘हंस’ की अभीष्ट उपलब्धि है, किन्तु आलेखक श्री बैठा बिहार के कई दलित लेखकों-कवियों के नाम नहीं गिनाए हैं, तो झारखंडी और भारत के अन्य राज्यों के दलित लेखकों के नाम गिना दिए हैं, जो सिर्फ़ काम के सिलसिले में बिहार में रह रहे हैं, न कि डोमिसाइल लिए ! श्री बैठा के इस आलेख में श्री राकेश प्रियदर्शी आदि के नामोल्लेख नहीं है, जो हिंदी और मगही के न केवल सुपरिचित कवि हैं, अपितु वे बिहार से हैं और बिहार विधान परिषद में कार्यरत हैं, जहाँ आलेखक भी कार्यरत हैं. श्री प्रियदर्शी की कविता-पुस्तक भी एक दशक पूर्व से ही प्रकाशित है, जिनकी मगही-रचना सरकार के पाठ्यपुस्तक में भी शामिल है. ध्यातव्य है, ‘हंस’ के प्रस्तुतांक में श्री प्रियदर्शी के रेखांकन भी प्रकाशित हैं. दलित साहित्यकारों को आगे बढ़ाने में ओबीसी साहित्यकारों की महती भूमिका रही हैं, जिनमें श्रद्धेय राजेन्द्र यादव जी तो है ही, साथ में कई ओबीसी सितारें भी हैं. अभी के प्रसंगाधीन आलेख में श्री बैठा ने मेरे नामोल्लेख किए बिना एक विषयांतर टॉपिक चस्पाये हैं, यथा- “किंचित विषयांतर से बताऊँ कि एक बार एक रेडियो वार्त्ता की जो प्रस्तुति एक महोदय ने पटना आकाशवाणी में रखी, वह बिहार में दलित कथा-लेखन से संबद्ध थी. मगर, उसमें जो कथाकारों के नाम गिनाए गए वे सब के सब गैर-दलित थे. पटना में रहनेवाले ये दलित कथाविज्ञ वार्त्ताकार महोदय आपके अनुमानों के विपरीत बिरादरी के थे, वे सवर्ण न थे, ओबीसी थे !” सत्यता यह है, ‘दलित का समाजशास्त्र’ में ‘गोदान’ के पंडित मातादीन-सिलिया चमारिन आदिवाले प्रसंग आएंगे या नहीं ! विदित है, कुछ ओबीसी जातियों की सामाजिक-अवस्था ‘दलित’ से भी बदतर है, यथा- कुम्हार, तीयर, तेली इत्यादि. वार्त्ताकार का चयन करने का अधिकार उक्त आकाशवाणी का था. प्रस्तुतांक के संपादकीय में अतिथि संपादक डॉ. अजय नावरिया ने अच्छा लिखा है- “धर्मग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों में भी आपस में छुआछूत का चलन था. ब्राह्मण जाति के लोग आपस में भी श्रेष्ठ-हीन मानते हुए ब्राह्मणों के साथ ही अस्पृश्यता का व्यवहार करते थे….” यानी इस यातना को, जिसे भी जब अवसर मिला, प्रत्येक ने दूसरे-तीसरे को प्रताड़ित किया. कुलमिलाकर प्रस्तुतांक (हंस, नवम्बर 2019) एक संग्रहणीय अंक है.
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हंस, मई 2018 अंक पढ़ा. सम्पादक की लेखनी-धार पैनी होती जा रही है, किंतु हम भारतीय ‘पैनिक’ नहीं हो रहे हैं. ‘हंस’ की पहचान सम्पादकीय से है. प्रेमचंदीय ‘हंस’ में यह होती थी या नहीं, पता नहीं ! परंतु राजेन्द्र यादव ने आस्था को तर्क की कसौटी पर न केवल उतारा, अपितु तौल-माप किया और हर अंक में उत्तर कोरियाई परमाणु विस्फोट किया. मई 2018 में आज के राष्ट्र (धृतराष्ट्र !) वाले संजय (संजय सहाय !) ने ‘बलात्कार’ पर वाजिब लिखा है. बलात्कार जघन्यतम अपराध है, इसके कृत्यकारक को मुआफी नहीं दी जा सकती ! किंतु जानते हैं, यह बलात्कार-सोच कहाँ से और कैसे आए हो सकते हैं. जहाँ आप-हम रहते हैं, वहाँ तो लौटिए ज़रा ! कुत्ते सामूहिक रूप से एक कुत्ती पर सरेआम और बीच चौराहों पर ‘बलात्कार’ करते हैं. जहाँ जैसा मौका मिला, हर आयुवर्ग के पुरुष इस दृश्य को देखता है. अगर इसे बड़ा इशू नहीं बनाया जाय, तो डंके की चोट पर ऐसा भी कहूंगा, इस दृश्य को छिपकर महिलाएं भी देखती हैं. अब भी गाँव की महिलाएं, जो बकरियाँ पालती हैं और बकरी की उत्तेजनात्मक मादा-काल में आने पर उसे बकरा (बोतू) के पास ले जाती हैं, इसे अविवाहित महिला भी ले जाती हैं, तो बच्चे भी. बकरी को खूंटी से बांध दी जाती है और बकरे से सेक्स व रेप कराए जाने पर आनंदित होती हैं. सांड़ों (अरियां बैल) द्वारा भी गाय माताओं के साथ खुलेआम ‘बलात’ किया जाता है. क्या हमारे पुरुष बच्चे पशुओं के ऐसे कृत्य को आदर्शतम स्थिति या प्रेरणा मानते हैं । श्रीकृष्ण के साथ 16,000 से ऊपर परस्त्री कौन थी आखिर ? क्या सेक्स इतने ही अनिवार्य हैं ? क्या ‘सोनागाछी’ हर शहर में चाहिए ? योग और भोग एक साथ चल सकते हैं क्या ? सम्पादकीय ने स्पष्ट किया– हम मानव हैं, पशु नहीं ! मानव में बुद्धि का होना उन्हें हर प्राणियों में उच्चतम बनाता है, बावजूद पशुओं की भांति इन मानवों में एक लिंग और एक योनि भी है, जो आसक्ति और आकर्षण का कारण है. हमारे संस्कार और भोजन हमारे तन को आकुल करते हैं. हम भी 100 फीसदी ‘पाश्चात्य’ हो गए हैं और विधि बनानेवाले ‘विधायक’ तक ‘नेट’ पर सनी लियोन को ढूढ़ते हैं. क्या है यह सब ? ऐसे में इस ‘मातृ दिवस’ (13 मई) पर माताओं से आग्रह है कि वे ‘मानव-सृजन’ करनी छोड़ दे, यथा–
“माँ तब,
पत्नी बनी किसी की जब।
प्रेमी ने किए प्रेमिका से प्रेम तबतक,
वासना में लिप्त पति नहीं बना जबतक।
सहज नहीं हुई पत्नी, हुई जबरन प्रथम सहवास,
पति ने कर योनि क्षत-विक्षत, लिए आनंदाहसास।
पेडू दर्द से छटपटाती पत्नी, यह कैसी केमिस्ट्री है,
पति के लिए ‘विवाह’ सिर्फ ‘रेप’ की रजिस्ट्री है।
रोज कर वीर्यपात, यूटेरस भरती चली गयी,
‘भ्रूण’ की पंखुरी ने कहा- पत्नी पेट’से हो गयी।
रोज मिलने लगी, सेब-काजू-विटामिन,
पत्नी भी ‘औरत’ बन इनमें हो गई तल्लीन।
एक दिन पति, देवर, सास, ननद ने कहा, गिरा दो,
भ्रूण में बेटी है, हाँ, बेटी है, बेटी है, गिरा दो।
एक रात बेहोश कर गर्भपात करा दी गयी,
न कंडोम, ना कॉपर-टी, खुला खेल फर्रूखाबादी।
अहसास हुई, औरत ही औरत की ख़ाला है,
संभोग, सहवास, चिरयौवना ही गड़बड़झाला है।
फिर से वही खेल, सोची, क्या योनि ही औरत है,
ओठ, छाती, कमर, नितम्ब ही क्या औरत है ?
पति का अर्थ सिर्फ प्रजनन भर है, यही प्रेम है,
सृष्टि की रचना के लिए ऐसी व्यायाम, तो शेम है।
ससुराल जो गेंदाफूल थी, आज भेड़ियाशाला है,
सुना वे सब खुश है इसबार, गोविंदा आला है।
गर्भ से हुई पुत्रपात, छठी भोज, बोर्डिंग का सफर,
नहीं विश्राम, ताने मिले, दिन दर-दर, रात बेदर।
मैं रह गयी पत्नी, मर्द पति का फिर वही खेल,
घिन्न आ गई, ज़िन्दगी से, पत्नी का पति ही जेल।
पुत्र से भी घृणा हो गयी, बड़े होकर पति बनेंगे,
किसी लड़की से प्यार जता, ‘रेप’ की रजिस्ट्री करेंगे।
तब मैं भी सास बन, इन हादसों की गवाह रहूँगी,
यह कैसी सिलसिला, तब विरोध कर नहीं सकूंगी।
क्या ऐसे ही बनती है ‘माँ’, पतिव्रता, पुत्रव्रता,
एकल काव्यपाठ की भाँति, एकल रेपकथा ।
माँ मतलब कुंती, मरियम भी, द्रोपदी-गांधारी,
औरत देखती रही, शादी-सदी अंधा’री !
अच्छी थी जब कुंवारी माँ बनी, हुए थे वीर बच्चे,
कर्ण, यीशु सच्चे थे, अबके बच्चे हैं लफंगे-लुच्चे।
सभी माँ मिल, यह प्रण ले, नहीं करें कोई नवसृष्टि,
नहीं होंगे रेप वा करप्शन, नहीं रहेंगी तब कुदृष्टि ।”
साहित्यकार सुवास कुमार, अशोक गुप्ता, रजनी तिलक को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए जहां ‘बलात्कार’ के तत्वश: एक बात– ‘हंस’ (मई 2018) में अरुणेंद्र नाथ वर्मा की प्रकाशित कहानी का शीर्षक ‘मरद की जात अइसाइच होती!’ हमारे समाज और संस्कार के लिए बहुत कुछ कह देती है ।
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हंस, अप्रैल 2018 अंक पढ़ा. सम्पादकीय विचार से अभिक्रान्त हो गया. ‘ईश्वरों की समाधि’ की किताब ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ के लेखक महान विज्ञानी प्रो0 स्टीवेन व स्टीफ़ेन हॉकिंग, जिन्हें 21 की उम्र में डॉक्टरों ने कह दिया था कि वे 22वां जन्मदिन देख नहीं पायेगा, वो शख़्स डॉक्टरों की भविष्यवाणी को धता बता दिया और दुनिया को ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ से परिचित कराया. ईश्वर की कल्पना को उन्होंने नकारा और ईश्वरभक्तों की नज़र में ‘नास्तिक’ कहलाया. वह इस ‘समय’ वाली दुनिया को छोड़ अपने जीवन में 55 साल और इजाफ़ा कर 14 मार्च 2018 को 76 वर्ष की आयु में एक ऐसे इतिहास की तरफ निकल गए, जिनकी कल्पना शायद वो ‘एलियन’ के रूप में भी कर लिया था ! अब भी दुनिया की बेस्ट सेलिंग किताबों में एक ‘द ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ (समय का संक्षिप्त इतिहास’ को मैंने भी खरीदा और पढ़ा, किन्तु 10 बार पढ़ने के बाद भी समझ नहीं पाया है, बावजूद समय, अंतरिक्ष, दूरी और वेग को उन्होंने बारीकी से समझाया है । अष्टावक्र की भांति उनके सभी अंग दिव्यांग थे, किन्तु मस्तिष्क चिरंजीवी थी, यही कारण है हॉकिंग ‘अद्भुत व्हील चेयर’ पर बैठे -बैठे ही खगोलिकी सार -तत्व को अंतरतम से समझाया. उनसे उन सारे लोगों को सीख जरूर लेना चाहिए, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में मौत को आत्मसात करते -करते बच निकले, परंतु दुनिया को कुछ भी दे नहीं पाए. आज वे इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उनकी खोज मानवों के लिए सर्वोपरि है । काश! उन्हें नोबेल सम्मान से नवाजा जाता ! हाँ, उनकी नास्तिकता में हिंदी साहित्य ‘हंस’ के वरेण्य संपादक राजेन्द्र यादव की बेबाक टिप्पणी को पाता है. ‘हंस’ के इसी अंक में स्तंभ ‘अपना मोर्चा’ में प्रकाशित प्रथम पत्र ‘पूर्वग्रही निष्पत्ति’ के लेखक श्री बैठा के विचार में यह पसंद नहीं आया कि अगर न्यायाधीश महोदय भी दलित -अगड़े- पिछड़े के फेर में आएंगे, तो हम उन्हें न्यायमूर्त्ति कैसे कह पाएंगे ? इसी अंक में ‘न हन्यते’ के अंतर्गत आलेख ‘सृष्टि पर पहरा देती कविताएँ’ और ‘करुणा के कवि केदारनाथ सिंह’ में लेखक-द्वय ने कवि केदारनाथ सिंह को श्रद्धांजलि निवेदित किये हैं । चकिया (उत्तरप्रदेश) के कवि केदारनाथ सिंह को भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान मिला था. उन्हें जीते जी खूब सम्मान मिला । वृद्धावस्था और बीमारी ने कवि केदारनाथ सिंह को लील लिया. प्रियजन का सदा के लिए चले जाना अत्यंत मर्मभेदी और दुखदायी होता है.