ताम्रपत्र पाने को लेकर जिंदगी भर भटकते रहे स्वतंत्रता सेनानी योगेश्वर प्रसाद ‘सत्संगी’
ब्रह्मलीन योगेश्वर प्रसाद सत्संगी जन्मजात शाकाहारी, आदर्श कर्मयोगी और 1942 अगस्त क्रान्ति के अमरसेनानी थे. ध्यान और योग के अध्येता सहित जीवनपर्यंत सन्तमत सत्संग और बिहार, झारखंड, नेपाल के लोगों के अन्तेवासी संत महर्षि मेंहीं के विचारों और शाकाहार के वरेण्य प्रचारक रहे.
जन्म बंगाल के पुरैनिया (पूर्णिया) जिला, वर्तमान में बिहार के कटिहार जिला के मनिहारी प्रखंडान्तर्गत ऐतिहासिक ग्राम नवाबगंज में बाबा देवी साहब के शिष्य व विद्वान पिता मधुसूदन पॉल पटवारी और विदूषी माता गर्भी देवी के यहाँ 29 फ़रवरी 1908 को हुआ था.
तीन बहनों पर प्यारा भाई तथा स्नातक उत्तीर्ण और पटवारी पिता के दुलरवा बेटा जहाँ विलासप्रिय होना चाहिए, किन्तु वहाँ उनका झुकाव सन्तमत सत्संग की ओर था, चूँकि उनदिनों पिता मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश के बाबा देवी साहब के अनन्य शिष्य थे, इन शिष्यों में रामानुग्रह लाल, जो बाद में महान संत महर्षि मेंहीं के नाम से जाने गए, उनके पिता के पुरैनिया स्कूल में वर्गमित्र रहे थे, भी देवी साहब के शिष्य थे. महर्षिजी ने नवाबगंज मनिहारी को कर्मभूमि भी बनाये. दोनों शिष्य यहां ट्यूशन भी पढ़ाये. बालक लखन लाल भी इनसे पढ़े तथा अध्यात्म की और आकृष्ट होते चले गए. ध्यान और योग करने से योगी पुकारे गए. लखन लाल नाम गौण होकर स्कूली नाम योगेश्वर प्रसाद पॉल हो गया. पिता सन्तमत सिद्धांत के संयुक्त लेखक थे, इसी सिद्धांत को लेकर महर्षिजी अन्ततः कुप्पाघाट भागलपुर में स्थापित हो सन्तमत का प्रकाश फैलाये.
प्रवेशिका अध्ययन के क्रम में पिता के असामयिक निधन पर 6 भाई बहनों में 3 भाइयों के ये परिवार टूट से गए, क्योंकि बहनों की शादी हो गई थी, तब महर्षि मेंहीं ने दीक्षा देकर सम्बल प्रदान किये और वक्तान्तर में शूजापुर के पूर्वपरिचित बीरबल पंडित की पुत्री मैनी से योगेश्वर का विवाह कराने में महती भूमिका निभाये. बाल्यावस्था के दुलरवा नून तेल लकड़ी में आबद्ध होकर माटी पेशा अपनाये, तब भी नेपाल तक योग और ध्यान का प्रचार करते रहे. इसी बीच महात्मा गाँधी के संपर्क में आये और कालान्तर में अगस्त 1942 में उनके करो या मरो आह्वान पर भारतीय आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. संतलाल, नागेश्वर, गोपीपाल, हामिद अंसारी, मंगल, दिल्लू गंगोता, मोहन, पूरण इत्यादि मित्रों के साथ मिलकर अँग्रेजों को गुरिल्ला टाइप से परेशान किये, आजादी मिलने के कुछ वर्ष बाद तक कुल 5 बार जेल गए. स्वतंत्रता सेनानी कहाने के लिए भी लंबी लड़ाई लड़े, बावज़ूद ताम्रपत्र हासिल नहीं हुआ. किन्तु कुछ माह पेंशन मिला, बाद में भारत सरकार द्वारा इसे भी रोक दिया गया. आजादी के 50 साल पूर्ण होने पर पूर्व मानानीय सांसद शशिभूषण ने इनकी जीवनी को 1942 क्रान्ति सेनानी के रूप में शामिल किया. आजादी के बाद के नौकरशाहों के छद्म व्यवहार ने उन्हें स्वाधीनता सेनानी को मिलनेवाले ताम्रपत्र और प्रमाण-पत्र से मरहूम किया.
आजादी के कई वर्षों बाद इनका जुड़ाव संत बिनोवा भावे से भी रहा. नवाबगंज में इनके द्वारा संत भावे को 108 स्वनिर्मित नक्काशीदार सुराही सप्रेम भेंट किये जाने पर इनकी सेवा को उनके द्वारा अद्भुत कहा गया. कई माह की बीमारी के बाद 18 जनवरी 2006 को इस महापुरुष का देहावसान हो गया. जो ‘पद्म विभूषण’ के लिए नॉमिनेट भी हुए थे.