भले ही देह पर आपका अधिकार हो, किन्तु इसे नियमित स्वच्छ रखने से समाज और राष्ट्र मजबूत होंगे!
मन को पवित्र रखकर ही खुद के देह की स्वच्छता, फिर अपने परिवारिक सदस्यों की स्वच्छता, संबंधियों-अतिथियों की स्वच्छता, घर के अंदर की स्वच्छता, फिर चहारदीवारी के बाहर की स्वच्छता, पड़ौस की स्वच्छता, समाज की स्वच्छता इत्यादि के बाद ही हम आगे की सुध लें, तो बढ़िया है, क्योंकि सम्पूर्ण राष्ट्र की स्वच्छता सामाजिक सफलता के बाद ही संभव है । हम शपथ व संकल्प लेकर केवल डींगे नहीं हाँक सकते, बल्कि कार्यान्वयन/क्रियान्वयन के लिए अंगद के पाँव की भाँति दृढ़ निश्चयी बनने पड़ेंगे और इसे दायित्वरूपेण देखने पड़ेंगे!
अपनी बाल्यावस्था में जब मुझे स्वच्छता का मतलब पता नहीं था, तब मैं अपने सरकारी स्कूल में वर्गमित्रों के साथ समूह में झाड़ू-बुहारू किया करता, साथ पढ़नेवाली छात्राएं भी करती, परंतु वे परिसर की गोबर से लिपाई भी करती थी। हाँ, सबके कार्यदिवस बँटे थे । इस कार्य के बाद हमारे कपड़े गंदे हो जाते थे और एकमात्र स्कूली ड्रेस वाले बच्चे परिधानीय अस्वच्छता के बीच स्कूली स्वच्छता का मज़ा नहीं ले पाते थे । जब हाईस्कूल पहुंचा, तो भाँति-भाँति की गन्दगियाँ देखकर मन खिन्न हो उठा । मन को सँवारने का प्रयास किया, तो तन बेलज़्ज़ निकला, क्योंकि सफाई के बाद कूड़े – कचरे को कहाँ विसर्जित करूँ, हमेशा से यक्षप्रश्न रहा, जो आज भी यथावत है। सरकारी गड्ढे में फेंकने पर कोई समस्याएं नहीं आई, किन्तु ऐसे गड्ढे भरने के बाद दूसरे की परती जमीन पर कचरे फेंकना तो आफ़त मोल लेने जैसा था, 12 वीं तक यही रहा।
स्नातक प्रतिष्ठा उत्तीर्ण के बाद जब पटना लॉ कॉलेज में एडमिशन लिया, तो भविष्य के हमारे विधिविशेषज्ञ मित्रो, यथा- दीपक, संजय, अमिताभ, सुधांशु, प्रेमजीत, सरोज, विश्वास, मनोज, अरविंद, नीरज, विनय, अर्जुन इत्यादि ने मिल गीले कचरे को गलाने की तथा सूखे कचरे को परती जमीन के हकदारों से संपर्क कर प्लानिंग बना डाले । इसके इतर लॉज के बासी भोजन, सब्जियों के बेकार टुकड़े, पॉलीथिन इत्यादि लॉजमेट्स राजेश, प्रेम, अजीत, अमित, राजीव, राजकुमार, अजय, अमर, अजीत, कन्हैया, संतोष, नन्दकुमार तथा पड़ोसियों से मिलकर एवं संबंधित विभागों से जानकारी इकट्ठेकर उसे उसे गड्ढ़े में जलाने की व्यवस्था किये, हालाँकि पॉलीथिन जलकर खत्म नहीं होती थी, किन्तु सीमित तो ही जाती थी, तब इसे गलाने की कोई और विकल्प तो थी नहीं ! तब सड़क निर्माण में जलकर अवशेषप्राप्त प्लास्टिक काम आए थे ! वहीं सस्ता गोबर गैस, मानव मल का टॉइलेटिकरण, पेयजल की सफाई इत्यादि स्वच्छता अभियान से भी जुड़े।
आज हम सभी दोस्त अलग-अलग जगहों और पदों पर हैं, लेकिन वे सब जहाँ भी हैं, तन -मन- धन से समाजसेवा के विविध कार्यों में संलग्न हैं। मैं अभी गाँव में हूँ, यहाँ बाढ़ तो बहरहाल स्वच्छता को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। मुखियाजी गंदगी देखकर कन्नी काट लेते हैं, किन्तु मैं तो स्वच्छता के लिए ‘एकला चलो रे’ को ठान लिया है। संप्रति, लॉकडाउन में खुद और घर-आँगन को स्वच्छ रख रहा हूँ।