गज़ल
यहां से जाने की रट मैंने यूँ ही नहीं लगाई है
मतलब की ये दुनिया मुझको कभी रास न आई है
पूरा दिन चलती है साथ बिना कोई सवाल किए
आदमी की सबसे अच्छी साथी उसकी परछाई है
कितना शोर है इस खामोशी में कोई मुझसे पूछे
सजी है महफिल यादों की, कहने को तनहाई है
इश्क में डूबने वाले को बचा सका न कोई भी
न जाने इस आतिशी दरिया की कितनी गहराई है
असर नहीं आया मेरे शेरों में मीर-ओ-गालिब सा
मैंनें तो अपनी जानिब से पूरी जान लड़ाई है
— भरत मल्होत्रा