गीतिका/ग़ज़ल

यादों के झरोखे से- 18

गुलशन-ए-अशआर

 

तल्खिया-ए-हालात भी सिखाती हैं कुछ हमें
वर्ना बे-अंदाज़ ही जीते थे रौ में ज़माने की.
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आपकी सोहबत ने सुखन से मिला दिया
वर्ना अदब से यूं ही किये बैठे थे किनारा
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कश्तियां भी थीं, किनारे भी थे,
तूफानों में राह दिखाए वो सितारे न थे
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दर्द-ए-दिल को तेरे शेरों ने संभाला
काश तूने कुछ दवा ही दे दी होती
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खुदा की इनायत के बगैर यह मुमकिन नहीं है,
एक शेर के लिए जलना होता है कई रातों को
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ग़ैब के बाग़ की खुशबू का निशां मिल जाये
हमें भी आपकी महकती ग़ज़ल का माहताब मिले
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जब दुश्मन भी मेरे जीने की दुआ मांगने लगे
समझिये मंज़िले-मक्सूद करीब है
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किसी को न था ग़ुमान, समय ऐसा भी आएगा
हम देखते ही रह गए, तुम्हारा निशां न मिला
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जुस्तजू जिसकी है आरजू में ही मिलती है,
हकीकत में मिलने के लिए, किस्मत बुलंद चाहिए
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नए हैं लोग नई-नई सी है फ़िज़ाएं भी
फिर भी पुराने फसानों की बात कुछ और ही है
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मेरा नाखुदा रहे सलामत ऐसा कुछ करम कीजे
या फिर भंवर में तू ही नाखुदा बनके आना.
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(सुखन= साहित्य
अदब= साहित्य
माहताब= चंद्रमा
ग़ैब= अदृश्य लोक
नाखुदा= मल्लाह, कर्णधार)

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “यादों के झरोखे से- 18

  • लीला तिवानी

    इस ब्लॉग पर हमारी एक पाठिका नीरू शर्मा की प्रतिक्रिया-
    तुम कभी कभी गुस्सा कर लिया करो मुझसे,यकीन हो जाता है कि अपना तो समझते हो……….बाहर जाकर सेलफी लेना मजबूरी हो गया है,खुश दिखना, खुश रहने से ज्यादा जरूरी हो गया है…

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