कविता -पिंजरे में
पिजरे में
बचपन अनजान डगर मुश्किल
कोहराम मचा दुनिया में|
स्वछंद उड़ाने किलकारी हैं बंद आज दुनिया में|
देहरी के अंदर बैठ आज फिर मन से बाते करती|
मन के पिंजरे में बंद स्वयं हौले से झूला करती|
बाहर की दुनिया बिसर गयी जाने कब सुधि आएगी |
कब ख्वाब सजेंगे पलकों में कब ऋतु बसन्त छाएगी |
विज्ञान प्रगति का द्योतक है,विज्ञान ध्वंस का कारक |
भय रोग ग्रस्त सारी दुनिया ऐसा विषाणु यह मारक |
भय व्याकुलता से यह पिंजरा,हमको इस तरह बचाए|
राक्षस इस तरह छत विछत होकर, नष्ट स्वयं हो जाए |
मुँह बाए बैठा जो विषाणु,जब देह नही पायेगा|
मर जायेगा नरभक्षी तब यह पिंजरा खुल जाएगा |
फिर डालों पर झूलें होंगे ,तन मन से पेंग बढ़ेगी |
रौनक होगी वन उपवन में फिर डगर डगर चहकेगी |
मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’
लखनऊ(यू.पी)