ग़ज़ल
काँटों से जतन करके दामन को बचाना है।
फूलों से अगर तुमको घर बार सजाना है।
इक दीप बना खुद को गर दीप जलाना है।
कुछ करके जतन जग का अँधियार मिटाना है।
कुछ देर को ठहरा है कुछ देर में जाना है।
दरवेश सिफत इंसां कुछ वक़्त बिताना है।
आती न समझ मुझको उसकी येअदाकारी,
ख्वाबों में मुझे आकर रातों में सताना है।
रत्ती भी नहीं रक्खो फेवर की तवक्को कुछ,
उल्फत का सदियों से दुश्मन ये ज़माना है।
दिलसाफ रखो अपना,अपना है पराया भी,
कुछ वक्त यहाँ सब को दुनिया में बितानाहै।
— हमीद कानपुरी