हिंदी साहित्य के तीन आधुनिक तराने !
● रामधारी सिंह ‘दिवाकर’
कथाकार दिवाकर जी की कहानी ‘देहरी भई बिदेस’ पढ़ा, जो 07 नवम्बर ’16 के ‘आउटलुक’ (हिंदी) में छपा है । इस कहानी में माता यशोदा … मेरी माँ का नाम भी यही है, जो मेरे पास रहती है, परंतु कथा-पुत्र के तरह मैं हरगिज़ नहीं, हो भी नहीं सकता ! कहानी का प्रकाशन टटकी है, किन्तु कथा-विन्यास पुराना है । हाँ, दिवाकर जी रचित कहानी ‘गाँठ’ से मैं बेहद प्रभावित हुआ था। गाँठ ने जाति के अंदर जाति की गांठें खोल दी…
‘जैनेंद्र की भाषा’ शोध-प्रबंध पर भागलपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि।
वर्ष 1967 से ही कॉलेजों में अध्यापन-कार्य। मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष। प्रतिनियुक्ति पर 1997 से बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के निदेशक-पद पर कार्यरत। पहली कहानी ‘नई कहानियाँ’ के जून 1971 के अंक में प्रकाशित। तब से अनवरत लेखन। हिंदी की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक कहानियाँ, उपन्यास आदि प्रकाशित हुई। उपन्यासों में ‘क्या घर क्या परदेस, काली सुबह का सूरज, पंचमी तत्पुरुष, आग-पानी आकाश, टूटते दायरे, अकाल सन्ध्या प्रकाशित है। कहानी-संग्रह में नए गाँव में, अलग-अलग अपरिचय, बीच से टूटा हुआ, नया घर चढ़े, सरहद के पार, काकपद, धरातल, आतंक, स्वयं-साक्षी, अनाम संज्ञा, नवजात, नायक-प्रतिनायक, संबंध-वाचक, खोयी हुई जमीन, नीड़पाखी। मखान पोखर, माटी-पानी, वर्णाश्रम, चोर दरवाजा, छोटे लोग, नवोदय, पुनरागमन, आखिरी लोग, पोलटिस, प्रमाण-पत्र, अपना घर, इस पार के लोग, दुर्घटना, मानो दीदी, गाँठ, बड़े होते लोग इत्यादि प्रकाशित है।
● पंकज चौधरी
पत्रकार और कवि पंकज चौधरी की चार कविताएं ‘पाखी’ (अक्टूबर – 2016) में प्रकाशित हुई हैं । चारों कविताएं वीर-बहादुर । ‘दिल्ली’ कविता सिरफ लांछन की धाँसू प्रवृति लिए है । हाँ, इन कविताओं में ‘जाति गिरोह में तब्दील हुआ हिंदी साहित्य’ नामक कविता मुझे कशमकश रूप से अभी भी बाँध रखा है । … औरों को भी यह पढ़नी चाहिये । कविता ‘अंधेर नगरी’ एकपक्षीय बोलभर है । आज सवर्ण ही नहीं , वरन् पिछड़ा वर्ग भी SC/ST Act. से इतने कुप्रभावित हैं कि जेल-यात्रा सहित बदले की भावना भी इसके सापेक्ष जुड़ गया है । पंकज की पूर्व प्रकाशित लंबी कविता ‘उस देश की कथा’ से मैं प्रभावित रहा हूँ । इस नाम से इस वीर-बहादुर की प्रथम काव्य-प्रसून भी है । आज ये काव्य-पुरुष मेट्रोपोलिटन शहरों में संघर्षशील पत्रकार के रूप में रेणु और नागार्जुन के संयुक्तावतार में दिख जा सकते हैं !
द्रष्टव्यश:, उनकी एक प्रसिद्ध कविता “मैं हार नहीं मानूँगा, तो तुम जीतोगे कैसे” यहाँ प्रस्तुत है-
मैं हार नहीं मानूँगा
तो तुम जीतोगे कैसे
मैं रोऊँगा नहीं
तो तुम हँसोगे कैसे
मैं दुखी दिखूँगा ही नहीं
तो तुम सुख की अनुभूति करोगे कैसे
मैं ताली ही नहीं बजाऊँगा
तो तुम ताल मिलाओगे कैसे
मैं अभिशप्त नायक ही सही
लेकिन तू तो खलनायक से भी कम नहीं
मैं खुद्दारी की प्रतिमूर्ति ही सही
लेकिन तू तो किसी पतित से कम नहीं
माना कि प्रकृति भी मेरे साथ नहीं
लेकिन प्रकृति भी तो सदैव तेरी दास नहीं
तुम मुझे क्या अपमानित करोगे
तुम तो खुद सम्मानित नहीं
तुम मुझे औकात में क्या रखोगे
तुम्हारी खुद की तो कोई औकात नहीं
तुम मुझे क्या डराओगे
तुम तो मुझसे खुद डरते हो
मेरे ऊपर तुम क्या शक करोगे
विश्वास तो तुझे खुद अपने ऊपर भी नहीं
तुम मेरा रास्ता क्या रोकेगे
तुम्हारा रास्ता तो अपने आप है बंद होने वाला
मेरी इज्जत तुम क्या उतारोगे
तुम्हारी इज्जत तो खुद है तार-तार
तुम मेरा इतिहास क्या खंगालोगे
तुम्हारा इतिहास तो खुद है दाग-दाग
मैं राहु का वंशज ही सही
लेकिन तुम भी तो चंद्रमा के रिश्तेदार नहीं!
● शहंशाह आलम
कवि और राज्यकर्मी श्री शहंशाह आलम की पाँच कविताएं ‘हंस’ (अक्टूबर – 2016) में शहंशाही अंदाज़ में छपा है । इन पाँच कविताओं में कविता-त्रय ‘बढ़ई’, उनकी बेटी और छेनी पर लिखी गयी है , दो अन्य कविता में ज़िन्दगी के दो रूप का विवरण है । पहली कविता हँसती ज़िन्दगी के बारे में, तो तीसरी कविता यूँ टरकाती व दरकती ज़िंदगानी के बारे में है ! शहंशाह आलम की कविता ‘बढ़ई’ में बढ़ईगिरी कम और शहंशाहगिरी ज्यादा है । बढ़ई की बेटी से मिलते हुए वे लकड़हारे की पत्नी तक मिल लेते हैं । खैर, आलम जी की बहुत पहले की कविता ‘मेरे पिता का थैला (झोला)’ बेहद मार्मिक कविता रही है । संग्रहणीय संग्रह ‘…. ऊंटनियों का कोरस’ भी हर को पढ़ना चाहिए । मेरे पास इस कविता-संकलन की सुन्दर प्रति है।
उनकी ही कविता से-
“ये बड़ा भारी आयोजन था
उनके द्वारा
भव्य और अंतर्राष्ट्रीय भी
इसलिए कि इस महाआयोजन में
जनतंत्र को हराया जाना था
भारी बहुमत से
मित्रो, निकलो अब इस घर से
अब यहाँ न ‘जन’ है, न ‘जनतंत्र’ !”
‘कुम्हार’ नामक कविता विशद चर्चा में रही है, यथा-
“जब तक एक भी कुम्हार है
इस पूरी पृथ्वी पर
और मिट्टी आकार ले रही है
समझो कि मंगलकामनाएं की जा रही हैं
कितना अच्छा लगता है
जबकि मंगलकामनाएं की जा रही हैं
और इस बदमिजाज़ व खुर्राट औरत-सी
सदी में भी
कुम्हार काम भर मिट्टी ला रहा है
कुम्हार जिस समय बीड़ी पीता है
बीवी उसकी आग तैयार करती है
इतिहासकार इतिहास के बारे में
चिंतित होते हैं
श्रेष्ठजन अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में
भिड़े होते हैं
अंधकार चीरने हेतु
अपने को तैयार कर रहा होता है कवि
कुम्हार अकेला शख्स होता है
जो पैदल-पुलिस के साथ
शिकारी कुत्तों की भीड़ देखकर
न तो बौखलाता है
न ही उत्तेजित होता है
हालांकि उसको पता है
उसके बनाए बर्तन
खिलौने कैमरामैन पुरुष-समूह अंतरिक्षयात्री
अबाबील व दूसरी चिड़िया
सब-सब
मौके की तलाश में हैं
किसी अन्य ग्रह पर चले जाने के लिए
कुम्हार अकेला शख्स होता है
जो नेपथ्य में बैठी उद्घोषिका से कहता है
हम मिट्टी से और मिट्टी के रंगवाली
पृथ्वी से प्रेम करते रहेंगे।”
अस्तु, तीनों साहित्यकार अब भी अपने-अपने रचनात्मक-कार्य में बहुविध ढंग से संलग्न हैं !