ग़ज़ल
ज़ह्र आलूद बयां देने निकलते क्यूँ हैं।
जह्र लफ़्ज़ों का ज़बां से वो उगलते क्यूँ हैं।
जिनकी ताबीर किसी तौर न मुमकिनलगती,
ख़्वाब आ आ के मेरी आँख में पलते क्यूँ हैं।
रोज़ बदनामियाँ जुड़तीं हैं बही खाते में,
वो बयां फिर भी लगातार बदलते क्यूँ हैं।
ज़ह्न पर आज मुसल्लत है करोना की वबा,
फिर भी अरमान बगावत के मचलते क्यूँ हैं।
दम ब दम आ रहे सन्देश न घर से निकलो,
बेसबब फिरभी भला घरसे निकलते क्यूँ हैं।
— हमीद कानपुरी