माँ का हृदय
माँ का हृदय
फोन कटते ही निर्मला सोफे में धम्म से बैठ गई। उसके कानों में अब भी होने वाली बहू नेहा के एक-एक शब्द गूंज रहे थे। “एक मां अपने बच्चे के लिए अपशकुनी कैसे हो सकती है आंटी जी ? पांच साल की थी मैं, जब मेरे पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। एक बार भी झांक कर नहीं देखा मेरे चाचा-चाची ने कि हम दोनों मां-बेटी कैसे जी रही हैं और आज वे किस हक से मेरा कन्यादान करेंगे ? मेरी मां जो मेरे लिए पिता भी हैं, पिछले बीस सालों से ठीक से सोई नहीं, ताकि मेरी किस्मत न सो जाए। दिनभर दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा और देर रात तक जाग-जाग कर सिलाई-कढ़ाई की और मुझे पढ़ाया लिखाया जिससे कि मैं आज यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बन सकी हूं। बदले में मेरी मां, आज यदि पैंतालीस की उम्र में पैंसठ की दीख रही हैं, तो सिर्फ मुझे पाल-पोष कर बड़ा करने की खातिर । आंटी जी, मेरी मां मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है और मेरी दिली इच्छा है कि वही मेरा कन्यादान करें। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगी।”
निर्मला एक बार फिर 25 साल पीछे चली गई जब उसकी शादी हो रही थी। तब वह चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकी थी और उसका कन्यादान उसके चाचा-चाची ने किया। उसकी मां घर के एक कोने में बैठ कर आंसू बहाती रही।
‘नहीं, नहीं। नेहा के साथ ऐसा नहीं होगा। नेहा का कन्यादान उसकी मां ही करेंगी। लोग क्या कहेंगे, उसकी परवाह मैं क्यों करूं। पच्चीस साल पहले तो मैं कुछ नहीं कर सकी, लेकिन आज पीछे नहीं रहूंगी।’
“हेलो… नमस्कार समधन जी। मैं निर्मला बोल रही हूं।… जरूरी बात करनी है आपसे। ध्यान से सुनिए मेरी बात।…. कल आपसे हमने कहा था कि शादी में हमारी कोई डिमांड नहीं है, पर आज मैं आपसे एक जरूरी डिमांड कर रही हूं। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगी। …. देखिए डरिए मत। मैं कोई ऐसी वैसी डिमांड नहीं कर रही हूं।…. मेरी और मेरी होने वाली बहू दोनों की दिली इच्छा है कि नेहा का कन्यादान आप ही करें।…. आप ज्यादा मत सोचिए…. हां …. हां…. यदि आप नहीं मानेंगी तो मैं नेहा बिटिया की सास ही बन कर रह जाऊंगी, मां कभी नहीं बन सकूंगी।…. जी…. जी…. ठीक है। रखती हूं फोन। बाय।”
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़