व्यंग्य – भेद बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, प्रीत बढ़ाती मधुशाला
आज मुझे उन लोगों पर तरस आ रहा है जो मेरे मद्यपान से रुष्ठ रहते थे। मूर्ख कहीं के। वे राष्ट्र के प्रति मेरी सत्यनिष्ठा और भक्ति को नहीं समझ सके। उन्हें अब समझ में आ रहा होगा कि एक सैनिक युद्ध में सीने पर गोली झेलकर जो अपना कर्तव्य निभाता था, वही योगदान मेरी प्राणवान बोतलें सीमा के भीतर कितने महारथियों में चेतना फूँकने का कार्य करती रहीं। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मानव जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। आज मुझे इस बात का गर्व हो रहा है कि देश की रीढ़ की हड्डी यानि ‘अर्थ’ को खड़ा रखने में मेरा अमूल्य योगदान रहा। ये बात और है कि शराब पीकर मैं भले ही कभी नाली में और कभी समाज की नज़रों में गिरा, लेकिन देश की रीढ़ की हड्डी मैंने कभी झुकने नहीं दी।
शराब से नफ़रत करनेवालों से मुझे आज ग्लानि हो रही है। इस दैवीय पेय को अपवित्र कहते थे। स्वर्ग में भी ‘सोमरस’ पान हमारे देवता जब करते हैं तो मैंने धरती पर स्वर्ग ढूँढ़ लिया तो किसी की क्यों जलती है? हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी-सी जो पी ली है? अफसोस है कि समाज, शराबियों के देश के प्रति निष्काम योगदान को समझ न सका। देशभक्ति की परिभाषा समय-समय पर बदलती रही है। कभी अंग्रेज़ों के विरुद्ध आवाज़ उठाना देशभक्ति थी। चीन और पाकिस्तान की सेना को ईंट का जवाब पत्थर से देकर हमारे वीरों ने परमवीर चक्र अर्जित किया। पाकिस्तान को गालियाँ बककर हमारे बुद्धिजीवी और अनपढ़ अपनी देशभक्ति जताते हैं। आज आप भी शराब को मुँह लगाकर देशभक्ति का परिचय दीजिए। मद्यपान भले ही स्वास्थ के लिए हानिकारक है लेकिन देश के लिए लाभदायक है। संकट की इस बेला में जागिए। देखिए एक बोतल आपको पुकार रही है। आप यह सोचकर संकोच ना करें की आप शराबी कहलाएँगे। भाई साहब !देशी पीजिए- देशभक्त बनिए। विदेशी माल का बहिष्कार कीजिए। बापू-मार्ग अपनाइए- पूर्ण स्वदेशी!
जीवन नश्वर है। पानी केरा बुलबुला ज्यों मानव की जात। कबीरबाबा समझा-समझाकर निकल गये लेकिन मूर्खों को कौन समझाए?। भला हो सरकार का कि रामायण दिखला दी।मेरे ज्ञान-चक्षु खुले। बेचारे मारीच के सामने यक्ष-प्रश्न था कि किसके हाथों मरे? राम के या रावण के? उसने राम के हाथों मरकर मोक्ष पाना उचित समझा। मुझे भी लगता है कि जब मरना ही है तो क्यों न सोम-पान कर मरूँ। कम से कम देश का भला तो होगा। अंतिम साँस परोपकार में जाएगी। कोरोना के हाथों चढ़ गया तो कोरोन्टिन में साँसें गिनो और गुमनाम मौत मरो। छीऽऽ! मैं ऐसा टुच्चा नहीं हूँ।
देश पिछले कई दिनों से कोरोना संकट से जूझ रहा है। पर पत्नी प्रसन्न है। इतने दिनों से परिवार में एक सात्विक शांति जो है। उसे अपनी सौत से छुटकारा जो मिल गया। पड़ोसी मेरी ओर श्रद्धा से देखने लगे हैं कि ‘सुधर गया।’ मैं चरित्रवान हो गया था। किंतु मैंने सरकार के निर्णय का सम्मान किया। ऐसा चरित्र और शराफत क्या काम की जो देश के काम न आए? आज मैं भी फिर उस हमाम की लाईन में शामिल हो गया जहाँ बहुत से नंगे पहले से खड़े थे-धर्म-जाति-संप्रदाय-अमीरी-गरीबी का भेदभाव त्याग कर। बच्चन जी कान में गुनगुना रहे थे मेरे-“भेद बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, प्रीत बढ़ाती मधुशाला।”
— शरद सुनेरी