मजदूर
मजदूर
कहाँ तो उन्हें पहले भरपेट खाने को नहीं मिलता था और अगर मिलता भी, तो तब, जब वे भूख से व्याकुल हो चुके होते। माँ और बापू रात के आठ-साढ़े आठ बजे तक काम से लौटते। बापू तो अपनी कमाई की पूरी पी जाते, पर माँ अपनी कमाई से आटा, सब्जी वगैरह खाने का सामान लेकर आती, खाना बनाती, तब जाकर रात के नौ-साढे़ नौ बजे तक उन्हें खाने को कुछ मिलता। पर पिछले एक हफ्ते से वह नौ-दस साल का बच्चा देख रहा था कि माँ रोज पके-पकाए खाने का पैकेट लेकर आ रही है। बापू भी एकदम टुन्न। वे भी अपने पैसे अम्मा को दे दे रहे हैं। जिज्ञासावश उसने एक दिन अपनी माँ से पूछ ही लिया, “माँ, क्या अब तुम रोज हमारे लिए ऐसे अच्छे खाना लाओगी ?”
माँ का चेहरा उतर गया। बोली, “नहीं बेटा, 4-6 दिन और ही मिलेगा। चुनाव खत्म होने के बाद ये भी मिलना बंद हो जाएगा।”
बच्चे ने बड़ी मासूमियत से पूछा, “माँ, ये चुनाव बार-बार क्यों नहीं होते।”
“चुपचाप खा ले बेटा, अभी जो मिल रहा है, वही हमारे किस्मत की है।” किसी तरह वह बोल गई।
बच्चे को माँ की बात समझ में नहीं आई। वह अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप खाने लगा।
माँ आसमान की ओर निहार रही थी।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़