यशोधरा का विरह और सिद्धार्थ का बुद्धत्व
सिद्धार्थ ने बोध (ज्ञान) प्राप्त कर लिया और बुद्ध हो गए। संसार में ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर लोगों को सुख-शांति का मार्ग दिखाया। संसार उन्हें पूजने लगा और उनके हजारों अनुयायी हो गए । लेकिन इतने ऊंचे ज्ञान और सम्मान को प्राप्त करने वाले बुद्ध यशोधरा के सदैव ऋणी रहेंगे जी हाँ यशोधरा जिनके हृदय सम्राट होने का सौभाग्य सिद्धार्थ अर्थात बुद्ध को मिला ।
“सखी वे मुझसे कहकर जाते।“ कवि मैथिलीशरण गुप्त
एक स्त्री जिसने अपने जीवन कि बागडोर एक पुरुष के हाथ में दे दी हो यदि वह पुरुष उसे बिना कुछ कहे रात्रि के अंधकार में ईश्वर प्राप्ति हेतु गृहत्याग कर निकल जाए तो उस स्त्री का जीवन किस प्रकार बीतता है, वह अपने शील और संयम की रक्षा कैसे करती है, कैसे समाज का सामना करते हुए अपनी संतान को योग्य बनाती है और न जाने कितने समस्याओं के सागर पार करती है। यदि ये जानना हो तो यशोधरा के जीवन को देखें।
यशोधरा राजा सुप्पबुद्ध और उनकी पत्नी पमिता की पुत्री थीं।१६ वर्ष की आयु में यशोधरा का विवाह राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ के साथ हुआ। यशोधरा एक सुंदर राजकुमारी थी जिसका विवाह एक बड़े राजघराने में हुआ । राजमहल में सुख-सुविधाओं के अंबार लगे हुए थे यशोधरा का विवाह 16 वर्ष की आयु में हो गया था और उन्होने ने २९ वर्ष की आयु में एक पुत्र को जन्म दिया । लेकिन अपने पति सिद्धार्थ के संन्यासी हो जाने के बाद यशोधरा ने अपने बेटे राहुल का पालन पोषण करते हुए अपने जीवन की सारी सुख सुविधाओं को त्यागकर एक संन्यासिनी का जीवन अपना लिया। उन्होंने मूल्यवान वस्त्राभूषण त्यागकर एक सामान्य सा पीला वस्त्र धारण किया और दिन में एक बार भोजन किया।
सिद्धि हेतु स्वामी गए ये गौरव की बात,
लेकिन बिना कहे गए यही बड़ा आघात । कवि मैथिलीशरण गुप्त
यशोधरा को जीवन-भर यही दुख रहा कि स्वामी यदि बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए घर छोड़ कर गए तो मुझसे कहकर क्यों नहीं गए क्या वो मुझे पहचान नहीं पाये थे? हालांकि विद्वानों को बुद्ध की बोध पिपासा,जन-कल्याण के कार्य और शिक्षाएँ तो याद रहीं लेकिन वह यशोधरा के त्याग और विरह को इतना प्रकाश में नहीं ला पाए।
सिद्धार्थ के गृह त्याग का वर्णन बौद्ध ग्रंथों में बड़े विस्तार से और प्रभावशाली ढंग से किया हैं। कहते हैं कि जब राहुल सात दिन का हो गया तो उसी दिन सिद्धार्थ का हृदय अत्यंत चंचल हो उठा। संसार का सारा सुख उन्हें काटने को दौड़ता था। चारों ओर आधि- व्याधि की प्रचुरता दिखाई पड़ती थी। उसी दिन अर्धरात्रि को वे उठ खड़े हुए। उस समय उनकी सेविकाएँ अर्ध नग्न अवस्था में सो रही थीं, जिसे देखकर उनको और भी विरक्ति हो गई। उन्होंने चुपके से अपने सारथी चंडज (छन्नक) को जगाया और अपने प्यारे घोड़े ‘केतक’ को लाने की आज्ञा दी। सारथी यह सुनकर आश्चर्य में आ गया। उसने सिद्धार्थ को इस समय घूमने को मना किया, पर वे नहीं माने।
राजमहल छोड़ने से पहले एक बार सिद्धार्थ अपनी स्त्री के शयनागार में गए, किंतु उस समय उनकी स्त्री पुत्र के मुख पर हाथ रखकर सो रही थी। जाग जाने के डर से उन्होंने उसका हाथ न हटाया। उस समय यशोधरा भी अपार रूपवती जान पड़ रही थी पर सिद्धार्थ अपने हृदय को पक्का करके स्त्री और पुत्र की ममता को त्यागकर बाहर निकल आए और जंगल की तरफ रवाना हो गए।
प्रातःकाल होने पर उन्होंने अपने वस्त्र एक भिखारी से बदल लिए और तलवार से अपने घुँघराले लंबे केशों को काट डाला। एक स्थान पर उन्होंने यज्ञ होते देखा, जिसमें वेदी के निकट बहुसंख्यक पशुओं को बलिदान दिया जा रहा था और चारों ओर रक्त ही रक्त दिखाई पड़ रहा था। यह दृश्य देखकर उनको बड़ी वेदना हुई और वे अपने मन में विचार करने लगे कि ये लोग कितनी नीचता का काम कर रहे है ऐसे घृणित कार्यों से मन कि शांति कदापि नहीं मिल सकती ।
सिद्धार्थ फिर जंगल में पहुँच गए और दो तपस्वी ब्राह्मणों के पास रहकर वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, पर जब एक वर्ष तक वेदाध्ययन से भी उनको शांति प्राप्ति के कुछ लक्षण दिखाई न पड़े तो वे अन्य पाँच व्यक्तियों के साथ घोर तपश्चर्या करने के निमित्त दूसरे घने जंगल में चले गए।
इस प्रकार वे विभिन्न सिद्धांतों के अनुयायी साधुओं के पास रहकर कई वर्ष तक तप करते रहे, जिससे उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया और कार्य शक्ति भी बहुत घट गई, पर इससे न तो उनके मन की समस्याओं का समाधान हुआ और न उनको आत्मिक शांति ही मिल सकी। अंत में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल गृह त्यागकर वन में निवास करने और स्वेच्छा से शारीरिक कष्ट सहन करने से ही ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
इसके लिए आवश्यक है कि पूर्वाग्रहों की चिंता न करके संसार की स्थिति और समस्याओं पर उदार भाव से विचार किया जाए और बुद्धिसंगत था तर्कयुक्त निर्णय को स्वीकार किया जाए। इस मार्ग पर चलने से उनके हृदय में सत्य ज्ञान का उदय हुआ। कहा जाता है कि यह ज्ञान उनको वर्तमान गया नगर के समीप एक बरगद के वृक्ष के नीचे निवास करते हुए प्राप्त हुआ, जिससे उसका नाम ‘बोधि वृक्ष’ पड़ गया। आगे चलकर वह स्थान बुद्ध मत वालों का प्रधान तीर्थ स्थान बन गया। सर्वाधिकार सुरक्षित