यात्रा के पन्ने
परम पिता ईश्वर सत्य मानकर
उसके विश्वासों की दुनिया में
आशाओं की गली – गली में
आस्तिक था मैं ‘ ओं ‘ ‘ ओं ‘
अपने आपमें चलता हुआ
एक लम्बी यात्रा मेरी थी ।
मंदिर – मंदिर के स्वादिष्ट प्रसाद से
मेरा भी अनेक भगवान बने थे
जहाँ भी जायें, क्या मिला !
मन की वही तुष्टि रह गयी
माँ के पेट में पिंड बनकर जो
नित्य मैं चुपचाप पाता था
मंदिर एवं गिरजाघरों में
दिल खोलकर प्रवचन सुनता था
ईश्वर के भरोसे पर मैं
दूर – दूर भटकता था
धार्मिक ग्रंथों का पठन – पाठन,
हजारों बार मंत्र जप मेरा था ।
जन्म, पुनर्जन्म, जगत के प्रति,
पोथी – पुराण, मिथकों को लेकर
साधक, श्रद्धालु, बड़ों के साथ
तेज से तेज चर्चाएँ मेरी थीं
सच्चे साधक की वाणी में
पहली सीढ़ी पार करने का आभास था ।
दीक्षा देने का, गुरू बनने का
उत्सुकता दिखाते हुए
सन्यासी कयी मुझे मिले थे
पहली सीढ़ी पर बैठकर ये
पोथी – पुराण हाथ में लिए
पेट को पालने का नाटक रचते थे ।
आँखों के रंगों को पारकर
मंदिर के उस पुरानी पीपल वृक्ष के नीचे
घंटोंभर ध्यान में बैठता था
कुदरत की गोद में शून्य का परिपाक
समुन्नत सत्य साबित हुआ कि
मेरे लिए यह दूसरी सीढ़ी थी ।