गिरगिट
गिरगिट
एक दिन मिला मुझे
मेरी छत पर
तुलसी की हरी पत्तियों के
पीछे , कुछ छुपा छुपा सा
सहमा , उदास
अनमना सा वो
गिरगिट , बैठा धूप सेंकता
पूछ बैठी मैं ,
कहां छिपे रहते हो?
सुस्त से हो ?
दिखाई नहीं देते आजकल ?
क्या लुप्त होने की ठानी है ?
आखिर क्या परेशानी है ?
वो बोलने लगा ,
भेद हिद्रय के खोलने लगा
अब क्या मुस्काऊं
क्या रंग बदल पाऊं
जब से आदमी रंग बदलने लगा
मैं तो शर्म से मर जाता हूं
इतनी जल्दी ,इतने रंग तो
मैं भी नहीं बदल पाता हूं
इसीलिए छुपा हुआ रहता हूं
गिरगिट जैसे रंग बदले आदमी
सियार से पैंतरे ,कोयल सा
धोखे के काम और मुंह में राम ,
नाग सा डसता है , मधुमक्खी सा मुख
पीछे है डंक ,गिद्ध सा खाना
बिल्लियों सी शान
फिर उसने आह भरी और बोला
इस आदमी ने अपने घरों में
जंगल छुपा लिए है
सभी जानवर अपने भीतर
बसा लिए है
अब इसे न जंगल चाहिए न
चाहिए जंगलों के जीव
इसीलिए बना रहा
कंक्रीट वन
और इसमें रहता
कंक्रीट से बना मन
इसीलिए मुंह छुपा रहा हूं
अब जा रहा हूं
कहकर खो गया गिरगिट
पत्तियों में कहीं
मैं सोचती हूं वही
ये गिरगिट क्या गा गया ?
क्या कोई सत्य दिखा गया ?
— सुनीता द्विवेदी