सिसक रहे हम छुप छुप कर
देखकर दुनिया की हालत को
क्यों सिसक रहें हम छुप छुप कर
जाने ये कैसा वक्त है आया
कल तक हम मिलते थे जिनसे
हँसकर और गले मिलकर -क्यों
लगने लगी भली अब दूरी –उनसे
क्यों सिसक रहें हम छुप छुप कर ,
जाने ये कौन कहाँ से बला आई है
जिसने,अकाल मृत्यु का यह तांडव
पूरी दुनिया में है मचाई
जी रहे हैं लोग खौफ में उसके
कुछ चले गये आगोश में उसके
जो रह गये हैं बचे अभी -वो
जी रहे हैं डर डर कर आपस में
जाने कब उसके आगोश में जाने की
बारी मेरी आयेगी ,
इसलिए ,सिसक रहें हम छुप छुप कर ||
— शशि कांत श्रीवास्तव