ये कैसी ‘मदर डे’ ?
हम हर साल मातृशक्ति दिवस’ मनाते है, परंतु हे माँ ! आज के बच्चे ‘मातृ-दिवस’ भी मनाते हैं और ‘माँ’ पर गालियाँ भी बकते हैं ! सासरूपी माँ को आदर तक देते नहीं I पता नहीं, ये कैसी ‘मदर-डे’ है, जो वे मनाते हैं ? चूँकि मातृ-दिवस पश्चिमी सभ्यता से अपनाई गई है, लेकिन हम भारतीय होकर सिर्फ एक दिन ही माँ के नाम की आराधना करें, यह हमें शोभा नहीं देता ! हम उस माँ को भूल रहे हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को सरहदों पर धरती माँ की रक्षा के लिए भेज रखी हैं और अपनी गोदसुनी कर रही हैं और वे जवान व उनके बेटे को भी खुशी-खुशी भारतमाता की रक्षा के लिए दुश्मनों को उनके देश में जाकर मारते हुए शहीद होने का गौरव प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन हम उन शहीद बेटे की माँओं को कभी याद नहीं करते ! क्यों न एक दिन उन वीर शहीदों की माँ के नाम भी हो ! मैसेंजर ऑफ आर्ट ने सटीक लिखा है-
भारतीय परंपरा ऐसी है कि यहाँ देवियों को माँ का दर्जा प्राप्त है, इन्ही देवियों में पुस्तकधारिणी माता सरस्वती भी है ? शास्त्रों में इन्हें विद्या की देवी कहा गया है ! समय बदल रहा है, परंपरा बदल रही है कि माँ सरस्वती की सजावट का तरीका भी बदल रहा है । लोग DJ के साथ उन्हें बुलाते हैं और DJ की धुन पर ही उन्हें ट्रेक्टर पर बिठा कर ‘विसर्जित’ करते हैं । बच्चे को आगे बढ़ाकर किशोर भी DJ की शोर में थिरकते हैं और इस ऊटकबंड पर लाखों खर्च कर डालते हैं ।
कभी आपने सोचा है कि ऐसे प्रतिमाओं के ‘ब्रह्मा’ कौन हैं और इस आधुनिक ब्रह्मा की क्या दशा-दुर्दशा है ? सभ्यता की शुरुआत से ही ‘कल्पनाशक्ति’ के माध्यम से देवी-देवताओं का रूप हमारे कुम्हार भाई अपनी हाथ, माटी, कारीगरी और बाजीगरी के माध्यम से मूर्तियों में रूप, यौवन और तमाम सौंदर्य देते रहे हैं, सिर्फ जीवन को छोड़कर ! पर उस शिल्पकार ‘कुम्हार’ पर किसी की नज़र नहीं जाता है, वे कितनी गरीबी और अभावों में अपनी ज़िन्दगी व्यतीत कर रहे होते हैं । जिनके बनाये आकृति (प्रतिमा) की हम पूजा करते हैं । परंतु कितने हैं, जो हाथों माटी लिए ब्रह्मा यानी कुम्हार को पूजते हैं व सम्मान देते हैं ।
मुझे दुनिया देखने का हक़ नहीं है ।
पर आप जब मुझे मारना ही चाहती थी तो “लिंग-परीक्षण” क्यों करवाई ।
लिंग परीक्षण में मैं ‘लड़की’ न होकर ‘लड़का’ हुआ , तो भी आप मुझे मारने पर तुली है क्यों ?
और लोग तुम्हारा अपमान करेंगें और तुम लड़की होते तो जो मेरे साथ हुआ “वो” तुम्हारे साथ भी हो सकती…. थी / हो सकता…. था ?
आपके साथ खेला,
कैसे आपकी निचुड़ी देह यहीं रह गयी और ‘उनका खेल’ आगे हो गया ?
कि क्या यही मेरा ओलंपिक पदक है ???
माँ ! तुम बहुत याद आती हो,
जब मैं अन्दर से रोता हूँ,
कुछ गम को छुपाते-छुपाते मैं,
रात को भी ना सो पाता हूँ !
मेरी अब जहां ख्वाहिश है, ऐ खुदा !
कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ,
माँ का आँचल में इस तरह लिपट जाऊँ,
कि मैं फिर से नन्हा हो जाऊँ !
माँ ! तेरी ही खुशी की ख़ातिर,
अब मैं चल रहा हूँ, सही राहों में,
तेरे भी तो कभी सपने होगें,
उसे भी जोड़ मैं हूँ, उन चांद-सितारों से आगे !
यानी कि मेरी माँ……
माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
‘पड़ौस की आँटी’
चाहे हो कितनी सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।
तभी तो प्रस्तुत कविता अप्रस्तुत वेदना लिए प्रस्तुत है, यथा-
माँ मतलब
कुंती भी,
मरियम भी,
द्रोपदी-गांधारी भी,
कैकेयी भी,
पुतली भी,
कमला कौल भी,
हीराबेन भी,
चंबल के डकैतों की माँ भी,
मंथरा की माँ भी,
फूलन देवी की माँ भी,
या राष्ट्रमाता भी,
मदर टेरेसा भी,
तो फाँसी पर चढ़ गए
हत्यारे/अपराधी/रेपिस्ट या etc की माँ भी,
जैविक माँ यानी
चाहे विवाहित हो या लिव इन या अविवाहित माँ हो,
या पिल्ले की माँ भी,
माँ मतलब
आदरणीया होती हैं, श्रद्धेया होती हैं !