अब तेरी रहनुमाई का मोहताज नहीं है
अब तेरी रहनुमाई का मोहताज नहीं है
तुमको मालूम है वो मजबूर आज नहीं है
यूं लगता है जलाकर आया ख्याल पुराने
ओढ़े रहता जिसे वो नकाब-ए-लाज नहीं है
सर पर एक भोज है उसके फेंक देगा यकीनन
हीरे मोती जड़ा हो जैसे कोई ताज नहीं है
अपनी लड़ाई अकेले ख़ुद ही लड़ रहा वो
मजबूरों पर ज़रा भी संजीदा समाज नहीं है
घबराता नहीं अब वक्त कैसा भी आए भले
अर्श से गिरके जला डाले ऐसी गाज नहीं है