अष्टभुजी
आज दुर्गा दीदी का एक संदेश आया था- ”आपको यह बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है, कि आज मुझे सरकार से अपने आठवें स्कूल के लिए भी स्वीकृति मिल गई है.”
”बहुत-बहुत बधाई हो दुर्गा दीदी जी, हम तो आपको पहले ही अष्टभुजी समझते-कहते थे, अब तो आप सचमुच अष्टभुजी हो गईं.” खुशी के पारावार में विचरण करते हुए उसने दुर्गा दीदी को लिखा और बैठे-बैठे ही कई साल पहले की दुर्गा दीदी से मिलने चली गई.
तब कलकत्ता के लेखक सेमीनार में हमारी उनसे पहली मुलाकात हुई थी. वे खुद तथाकथित शिक्षित नहीं थीं और न ही लेखिका थीं, लेकिन उनके सुरम्य समाज-सेविका रूप ने उन्हें सुशिक्षितों के मध्य सिरमौर पद पर विराजमान कर दिया था,
पहली मुलाकात का वह रूप कितना सलोना था! स्टेशन पर लेखकों के स्वागत के लिए आई दुर्गा दीदी ने महिला लेखकों को होटल ले जाने ही नहीं दिया. ”ये हमारी छोटी-सी कुटिया में रहेंगी, भाई लोग जहां चाहें रह सकते हैं.” सफेद साड़ी में सुसज्जित सादगी की प्रतिमूर्ति दुर्गा दीदी ने कहा था.
”छोटी-सी कुटिया ऐसी होती है, तो महल कैसा होता होगा?” महिला लेखिकाओं ने दुर्गा के घर में प्रवेश करने से पहले ही सोच लिया था.
दुर्गा दीदी के उस महलनुमा छोटी-सी कुटिया के वो मंजर अभी भी उसकी आंखों के सामने तैर रहे थे. शाम को कभी कलकत्ता के सुप्रसिद्ध चाटवाले को बुलाना, कभी डिनर के बाद रबड़ी की कुल्फी वाले को आमंत्रित करना. दिन भर तो सेमीनार में निकल जाता शाम को कभी प्रेस कांफ्रेंस करवाना, कभी कवि सम्मेलन आयोजित करना. सब काम सुनियोजित रूप से हो रहे थे. अपने सातों स्कूलों की प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखते हुए सेमीनार में भी शान से अपनी उपस्थिति दर्ज कराना सिर्फ आठवीं पास दुर्गा दीदी की विशेषता थी. भारत विभाजन के कारण वह आगे नहीं पढ़ पाई थी, अब हर साल हजारों विद्यार्थियों को शिक्षा-दान देकर वह अपनी उस कमी की पूर्त्ति कर रही है.
रात को सबको लकदक चादरों वाले पलंगों पर सुलाकर खुद वह अष्टभुजी अगले दिन के शक्ति-संचय हेतु धरती पर पतली-सी चद्दर बिछाकर धरती मां से नई ऊर्जा प्राप्त करने के लिए बड़े प्यार-सुकून से सो जातीं. उस समय उनकी स्मित हास्य वाली मुखमुद्रा दर्शनीय होती थी.
अभी न जाने वह क्या और कितना सोचती कि दुर्गा दीदी का एक और संदेश आ गया था- ”सिर्फ अष्टभुजी कहने से काम नहीं चलेगा शालू मैडम! लेखिका-चित्रकार महोदया जी, नए स्कूल के उद्घाटन समारोह के लिए मुख्य अतिथि बनकर आना होगा, ई.टिकट भेज दिया है.”
”जो आज्ञा मैम.” लिखकर शालू अपने हाथों के सहारे शीर्ष पर पहुंचने वाली अष्टभुजी दुर्गा दीदी की अपरिमित शक्ति देखने की तैयारी में जुट गई थी.
यों तो हर नारी के इतने उत्तरदायित्व होते हैं, कि उसे अष्टभुजी की भूमिका का निभाव करना ही पड़ता है, लेकिन दुर्गा दीदी ने अपनी अष्टभुजी की भूमिका मुस्कुराते हुए अपने आत्माबल के द्वारा इतनी अच्छी तरह से निभाकर सिद्ध कर दिया, कि नारी अपने दम पर सब कुछ कर सकती है. ऐसे अष्टभुजी नारी दुर्गा दीदी को नमन. उनसे हमारी पह;ई मुलाकात 1991 में कलकत्ता में इसी रूप में हुई थी. बाद में दिल्ली के लेखक-सेमीनार में मुख्य अतिथि के रूप में भी आई थीं. अष्टभुजी दुर्गा दीदी को हमारा हार्दिक नमन.