आत्मनिर्भर (लघु कथा)
आत्मनिर्भर (लघु कथा)
बड़े गाँव के बड़े मुखिया साहब वर्षों से अपनी खुशहाल जिंदगी जी रहे थे, घर द्वार सब भंडार भरे थे, गांव के सभी किसान, नौकरपेशा, मजदूर किसी को किसी तरह की कोई परेशानी नहीं थी। अचानक गांव में बड़ा भारी संकट आगया। दूसरे गावँ में से पूरे गाँव में एक बीमारी फैल जाती है , जिसमें कई बच्चे, बूढे अधमरे हो जाते हैं, बहुत लोग मर जाते हैं। इस भीषण संकट में रोज किसी न किसी का शव उठाना पड़ता है। चैत की खड़ी फसल खेत में ही सूखकर बिखर गई। कुछ ही दिनों में खाने की समस्या होने लगी। लगातार गिरते मरते ग्रामीण एक दूसरे के आँसू देखकर रोते जा रहे हैं। सूखी लकड़ियों का टोटा होने लगा। बचे खुचे हरे पेड़ भी खत्म हो गए। एक दिन अचानक गांव के मुखिया प्रकट होते हैं औऱ अपनी चौपाल पर सबको बुलाकर कहते हैं,
मेरे प्यारे गाँव वालों , मुझे पता है इस बीमारी ने सबको रुलाया है, कई परिवारों ने अपने स्वजनों को खोया है।
अब आप चिंता मत करो, हम आने वाली बरसात में नहर से अपने गांव तक पानी लाएंगे। उच्च कोटि के अनाज के बीज लेकर आयंगे। हम आने वाले दिनों में एक फैक्ट्री लगाएंगे, जिसमें गांव के जवान लड़के नौकरी करेंगे।किसी को अब दूसरे के भरोशे नहीं रहना पड़ेगा। हमारी बैंकों में जो धन जमा है, उसका दस प्रतिशत हम उन सभी को
बांटेगे, जो गरीब हैं। सभी अपने घरों में उन बस्तुओ को बनाएंगे जो शहरों से आती हैं। हम अपने गांव को आत्मनिर्भर बनाएँगे।
तभी एक किसान ने खड़े होकर अपने गमछे से आँसू पौंछते हुए पूछा, चौधरी साहब ये बतादो , गांव में जो लाशें रखीं हैं जिन्हें जलाने के लिए लकड़ी नहीं हैं, जो लोग बीमारी से , भूख से मर रहे हैं उनके लिए आप क्या कर रहे हैं?? इतना सुनते ही चौधरी साहब अपने पालतू पहलवानों को इशारा करते हैं …. तभी चार पहलवान खड़े हुए और उसे उठाकर ले गए औऱ गाँव के बाहर एक अंधे कुए में फेंक आये..
डॉ शशिवल्लभ शर्मा