उम्मीद
दामन में छिपाए बैठे थे उम्मीदों के आसमां
बेरुखी ने जमाने की कुछ यूँ तन्हा कर दिया
सोचा भी न था अश्क़ों से दोस्ताना रहेगा
आये भी जो आँसूं तो छिपाना भी हमें होगा
जालिम तो न थी यूँ तेरी मदहोश अदाएं
दौर ये तन्हाई का यूँ हमको निभाना होगा ।
ऐ मौत तू ही आजा अब जान पे बन आई है
हम तो हैं दीवाने ये दुनिया कब समझ पाई है
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़