कविता
हसीन दरख्तों के निशान भी
जब जमीन को चुभने लगें
मुमकिन है दरख्तों का जिंदा रहना
क्या हुआ जो धरती से अलग होना पढ़े।
वक़्त कहाँ है अब किसी के लिए
मस्त हैं सब अपने जहान में ।
मत बता किसी को गम अपना
क्या हुआ जो दर्द खुद का छिपाना पढ़े ।
इल्जाम वो देते हैं जमीर को बेचकर
जिनका न कभी प्रेम से वास्ता हुआ
चला गया जो उसे भूल जा ,
क्या हुआ जो इंतजार में वक़्त से लड़ना पड़े ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़